दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवतजी की तीन दिवसीय व्याख्यानमाला, भविष्य का भारत : संघ का दृष्टिकोण, पूर्णतया सफल रही। इस व्याख्यानमाला में प्रतिपादित विषयों की कुछ चर्चा अभी भी चल रही है। श्रोताओं में ज्यादातर नए लोग थे इसलिए उन्हें संघ की जानकारी या तो नहीं थी, बहुत कम थी या भ्रामक थी। इसलिए अनेकों को यह अच्छा तो लगा पर साथ साथ अचरज भी हुआ कि क्या संघ सही में ऐसा है?
संघ के, राष्ट्रीय विचार के विरोधकों के तो मानो छक्के उड़ गए। जिन मनगढ़ंत बातों को जोर-शोर से प्रचारित कर वे अब तक विरोधी प्रचार कर रहे थे उनका वह काल्पनिक धरातल ही ढह गया। फिर भी मन का खुलापन ना होने से और जानने की प्रामाणिक इच्छा नहीं होने से उनका वही घिसा-पिटा तर्क और विरोध चल रहा है।
इन वामपंथी मूल के विरोध का सामना करते करते कुछ संघ समर्थक या कुछ स्वयंसेवक भी उनके जैसा ही सोचने लगते है, ऐसा भी आश्चर्यकजक अनुभव इस दौरान हुआ। एक बात को लेकर अधिक हर्ष या आश्चर्य प्रकट हो रहा है कि Bunch of thoughts को ले कर जो स्पष्टता सरसंघचालक ने दी उसका एक अर्थ यह लगाया जा रहा है कि संघ ने श्री गुरुजी के इस पुस्तक को नकार दिया या श्री गुरुजी को ही नकार दिया है। यह सही नहीं है।
Bunch of thoughts श्री गुरुजी के सरसंघचालक बनने के बाद (1940 में) विभिन्न विषयों पर व्यक्त किए विचारों का संकलन है। इसका पहला संस्करण 1966 में प्रकाशित हुआ था। इसमें संकलित कई विचारों की पृष्ठभूमि उस समय के संदर्भ और स्थितियां थीं। यह कालखंड भारत के और संघ के इतिहास का विशिष्ट महत्वपूर्ण कालखंड रहा है। इसलिए उस समय प्रकट किए विचारों को उस समय की घटनाओं के साथ समझना चाहिए।
डॉक्टर हेडगेवार जी की मृत्यु के पश्चात जब श्री गुरुजी के कंधों पर संघ कार्य को विस्तार एवं दिशा देने का गुरुभार आया था तब श्री गुरुजी की आयु महज़ 34 वर्ष की थी। संघकार्य को देशव्यापी बनाना था। पाकिस्तान की माँग ने ज़ोर पकड़ लिया था। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में स्थान-स्थान पर स्वयंसेवक सहभागी हुए थे। अनेकों को सश्रम कारावास या कहीं मृत्युदंड की सज़ा भी हुई थी। पाकिस्तान की माँग को ले कर ही 1946 के चुनाव हुए थे। मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में हिंदू समाज पर आक्रमण हो रहे थे। ‘डायरेक्ट ऐक्शन’ के कारण बंगाल में हिन्दुओं का महाभीषण नरसंहार हुआ था। भारत को स्वाधीनता तो प्राप्त हुई किन्तु साथ ही दुर्दैव से भारत का विभाजन हुआ। नए पाकिस्तान में हिन्दुओं का भीषण क़त्ल-ए-आम शुरू हुआ। लाखों की संख्या में अपने ही देश में हिन्दुओं को निर्वासित होकर आना पड़ा। उनकी सुध लेने के लिए स्वयंसेवकों ने अपना सर्वस्व लगा दिया। स्वयमसेवकों के अलावा और कोई सहारा निर्वासितों के लिए नहीं था। महात्मा गांधी जी की हत्या होने से पूरा देश स्तब्ध था। इसका झूठा आरोप गढ़कर संघ पर प्रतिबंध लगाया गया। यह स्वतंत्र भारत की द्वेषपूर्ण गंदी राजनीति की शुरुआत थी। सरकार आरोप सिद्ध भी नहीं कर रही थी। बातचीत के सभी मार्ग बंद होने पर स्वयंसेवकों ने इस अन्याय के ख़िलाफ़ अभूतपूर्व शांतिपूर्ण सत्याग्रह किया। अन्ततः प्रतिबंध हटाया गया। कम्युनिस्ट आंदोलन का प्रभाव बढ़ रहा था। उसके माध्यम से देश में विभाजनकारी तत्व सक्रिय हो गए थे। 1962 में चीन के आक्रमण और भारतीय सेना की घोर पराजय से निराशा का वातावरण था। कम्युनिस्टों ने खुलकर चीन का समर्थन किया। कन्वर्ज़न केंद्रित ईसाई गतिविधि तेज़ हो गयी थीं। न्यायमूर्ति नियोगी आयोग ने अपनी जाँच के बाद जो रिपोर्ट दी उस के कारण ही मध्यप्रदेश और तत्कालीन उड़ीसा (ओड़िशा ) में कांग्रेस का शासन होते हुए भी ‘एंटी कन्वर्ज़न’ क़ानून बनाया गया। चर्च की शह पर इसका विरोध भी हुआ। इस कालखंडमें श्री गुरुजी द्वारा समय-समय पर स्वयंसेवक और नागरिकों के सामने प्रकट किए विचारों का संकलन Bunch of thought के रूप में प्रकट हुआ।
श्री गुरुजी उसके बाद भी 8 वर्षतक विभिन्न विषयों पर मार्गदर्शन करते रहे। इस कालखंड में व्यक्त किए श्री गुरुजी के विचारों का संकलन Bunch of thoughts में नहीं है। इसीलिए श्री गुरुजी के जन्मशताब्दी वर्ष में श्री गुरुजी के विचारों का समग्र संकलन 12 खण्डों में 2006 में प्रकाशित हुआ। यह पढ़ने लायक है। इसका अध्ययन किसी संघ विरोधक ने किया हो ऐसा उल्लेख नहीं आता है। 12 खण्डों में जो विचार हैं उनका साररूप एक पुस्तक रूप में प्रकाशित हुआ है “श्री गुरुजी: दृष्टि एवम् दर्शन”। सरसंघचालक ने इसी पुस्तक को पढ़ने का आवाहन किया है। इसमें श्री गुरुजी के विचारों को नकारने की बात कहाँ आती है?
उस कार्यक्रम में Bunch of thoughts का संदर्भ देकर मुसलमानोंके बारे में संघ का विचार क्या है यह पूछा गया। सरसंघचालकजी ने जो उत्तर दिया वही बात स्वयं श्री गुरुजी ने 1972 में डॉक्टर जिलानी को दिए साक्षात्कार में कही है। वह साक्षात्कार या तो संघ विरोधकों ने पढ़ा नहीं है या जानबूझकर भुलाया गया है। इस मुलाक़ात का अंतिम भाग ऐसा है-
डॉ. जिलानी: भारतीयकरण पर बहुत चर्चा हुई, भ्रम भी बहुत निर्माण हुए, क्या आप बता सकेंगे कि ये भ्रम कैसे दूर किये जा सकेंगे?
श्री गुरुजी: भारतीयकरण की घोषणा जनसंघ द्वारा की गई, किंतु इस मामले में संभ्रम क्यों होना चाहिये? भारतीयकरण का अर्थ सबको हिंदू बनाना तो है नहीं.
हम सभी को यह सत्य समझ लेना चाहिये कि हम इसी भूमि के पुत्र हैं. अतः इस विषय में अपनी निष्ठा अविचल रहना अनिवार्य है. हम सब एक ही मानवसमूह के अंग हैं, हम सबके पूर्वज एक ही हैं, इसलिये हम सबकी आकांक्षायें भी एक समान हैं- इसे समझना ही सही अर्थों में भारतीयकरण है.
भारतीयकरण का यह अर्थ नहीं कि कोई अपनी पूजा-पद्धति त्याग दे. यह बात हमने कभी नहीं कही और कभी कहेंगे भी नहीं. हमारी तो यह मान्यता है कि उपासना की एक ही पद्धति संपूर्ण मानव जाति के लिये सुविधाजनक नहीं.
डॉ. जिलानी: आपकी बात सही है. बिलकुल सौ फीसदी सही है. अतः इस स्पष्टीकरण के लिये मैं आपका बहुत ही कृतज्ञ हूँ.
श्रीगुरुजी: फिर भी मुझे संदेह है कि सब बातें मैं स्पष्ट कर सका हूँ या नहीं.
डॉ. जिलानी: कोई बात नहीं. आपने अपनी ओर से बहुत अच्छी तरह से स्पष्ट किया है. कोई भी विचारशील और भला आदमी आपसे असहमत नहीं होगा. क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि अपने देश का जातीय बेसुरापन समाप्त करने का उपाय ढूँढने में आपको सहयोग दे सकें, ऐसे मुस्लिम नेताओं की और आपकी बैठक आयोजित करने का अब समय आ गया है? ऐसे नेताओं से भेंट करना क्या आप पसंद करेंगे?
श्रीगुरुजी: केवल पसंद ही नहीं करूँगा, ऐसी भेंट का मैं स्वागत करूँगा.
इसी तरह पत्रकार श्री ख़ुशवंत सिंह ने भी श्री गुरुजी का साक्षात्कार लिया। इसे पढ़ेंगे तो भी श्री गुरुजी के बारे में जो धारणा वामपंथी प्रचारित कर रहे हैं वह बदल जाएगी। यह साक्षात्कार भी 1972 का है। इस साक्षात्कार के बारे में श्री ख़ुशवंत सिंह लिखते हैं कि कुछ लोगों के बारे में आप मिले बिना ही दुर्भावना रखते आते है। श्री गुरुजी का नाम मेरी ऐसी सूची में सबसे ऊपर था, जिनका मैं तिरस्कार करता था।
साक्षात्कार के अंत में यही खुशवंत सिंह लिखते हैं – क्या मैं श्री गुरुजी से प्रभावित हुआ? मैं क़बूल करता हूँ कि हाँ।
तो यह है सच।
तथ्य और संदर्भों के दर्पण में देखें तो श्री गुरुजी का समग्र वैचारिक साहित्य पढ़े बिना, उन्हें प्रत्यक्ष मिलने का प्रयत्न किए बिना सरासर झूठा प्रचार करने वाले वामपंथियों के कौशल का चित्र स्पष्ट होता है।
Bunch of thoughts में अंतर्गत संकट इस प्रकरण में जिन तीन संकटों का उल्लेख है उनमें से जिहादी मुस्लिम कट्टरवाद के आतंक से आज सारी दुनिया त्रस्त है। ये तत्व भारत में जो अलगाववादी गतिविधि चला रहे हैं उससे आज सारा देश चिंतित है। चर्च के द्वारा छल-कपट से चल रहा कन्वर्ज़न, अनेक अराष्ट्रीय गति विधि को मिलता उनका छुपा समर्थन, और अर्बन माओवाद या नक्सलवाद के संकट की गम्भीरता अभी की कुछ घटनाओं से सभी के सामने आयी है।
भारत में रहने वाले ईसाई या मुसलमानों को साथ ले कर भारत का भविष्य गढ़ने के प्रयास के साथ ही उन की आड़ में जो अतिवादी, जिहादी, अराष्ट्रीय तत्व भारत विखंडन के कार्य में सक्रिय है उनसे सावधान रहना भी आवश्यक है। श्री गुरुजी द्वारा दिया गया यह इशारा आज भी समकालीन( relevant) और सार्थक है।
कहना चहिए की हिंदू जीवन, अपना मूल विचार और मूल्यों को क़ायम रखते हुए जिस तरह कालानुरूप आविष्कृत होता रहा है, वैसे ही संघकार्य का स्वरूप है। संघ की 92 वर्ष की यात्रा में अनेक चढ़ाव उतार आए। विरोध, दुष्प्रचार, कुठाराघात के अनेक प्रयास हुए। इन सब के बावजूद संघ कार्य और विचार सर्वव्यापी और सर्वस्पर्शी बन रहा है, बढ़ रहा है। इसके पीछे मूल हिंदू चिंतन से प्रेरित युगानुकूल परिवर्तनशीलता और ‘लचीली कर्मठता’ ही शायद कारण है।
डॉ. मनमोहन वैद्य
सहसरकार्यवाह
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 
Article published in Dainik Bhaskar on 18th October 2018