वैचारिक घुसपैंठ का संभ्रम

घुसपैंठी कहते ही हमारे मन में सीमा के पार से हमारी सुरक्षा व्यवस्था भेदकर हमारे देश में घुसने वाले विदेशी लोग ही आते है. उनके कारण निर्माण होने वाले राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रश्‍न, देशांतर्गत कानून व्यवस्था की स्थिति, रोजगार, सामाजिक तनाव आदि देश को सताने वाले प्रश्‍न मन में उजागर होते है. यह तो हुई भौतिक स्तर पर की घुसपैंठ; उसका बंदोबस्त किया जाना चाहिए और हमारे सीमा सुरक्षा बल उनकी क्षमता के अनुसार इसके लिए प्रयास करते ही है.
लेकिन घुसपैंठ का विचार इस प्रकार केवल भौतिक स्तर पर ही करने से काम नहीं चलेेगा. हमारे राष्ट्र जीवन में, सामाजिक जीवन में, पारिवारिक जीवन में और मानसिकता में अनेक विदेशी संकल्पनाएँ, विचार, व्यवस्थाएँ जम चुकी है. हमारा मनोविश्‍व, भावविश्‍व इन अभारतीय कल्पनाओं से ऐसा व्याप्त है कि इन घुसपैंठियों को सीमापार खदेडने वालों को राष्ट्रविरोधी, सांप्रदायिक कहकर कोसा जाता है अथवा प्रगतिविरोधी, प्रतिगामी, संकुचित कहकर उनकी अवहेलना की जाती है. ऐसा क्यों और कब से हो रहा है इसका समग्रता से विचार किया, तो यह घुसपैंठ हमारे राष्ट्रीयत्व के आधार पर ही और राष्ट्रीयत्व की कल्पना के मूल पर ही हमला है, यह ध्यान में आता है. हमें स्वतंत्रता मिली तभी से हम दिशाभ्रमित होकर हक्का-बक्का है, और भटक गए है, ऐसा ध्यान में आता है.
सर्वप्रथम आज हमारे राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन में एक शब्द ने बहुत बखेडा खड़ा किया है. वह शब्द है ‘सेक्युलॅरिज्म’. यह बाहरी शब्द हमारे देश में घुसाकर प्रतिष्ठित किया गया है. इसका निश्‍चित अर्थ क्या है, इसकी संविधान में भी व्याख्या नहीं है. सन् १९७६ में, जब देश में आपात्काल लागू था, पूरी जनतांत्रिक प्रक्रिया ठप्प हुई थी, संसद में विपक्ष अनुपस्थित था (कारण विपक्ष के अधिकांश नेता जेल में थे और जो जेल में नहीं थे वे भूमिगत थे) उस समय यह शब्द संविधान में जोड़ा गया. सेक्युलॅरिज्म अथवा सेक्युलर इस शब्द का मूल, यूरोप की एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में है. भारत का वैसा इतिहास नहीं है और सब उपासना पंथों को समान दृष्टि से देखना अथवा सबको समान अधिकार अथवा समान अवसर उपलब्ध होना, ऐसा उसका अर्थ माना जाय, तो हिंदूओं की यह परंपरा ही रही है. भारत हिंदुबहुल देश होने के कारण ही, संविधान बनाते समय १९५० से ही सब उपासना पंथों को समान अधिकार अथवा अवसर का उसमें समावेश था. इतना ही नहीं, अल्पसंख्य कहलाए जाने वाले उपासना पंथों के अनुयायीयों को, जो बहुसंख्य हिंदू समाज को नहीं है ऐसे कुछ विशेष अधिकार संविधान ने दिये हैं. ऐसा होते हुए भी ‘सेक्युलर’ शब्द संविधान में जोड़ने की क्या आवश्यकता थी? और आज समाज का क्या चित्र दिखाई देता है? सेक्युलॅरिज्म के नाम पर घोर सांप्रदायिकता और विघटनवाद को खुलेआम पोषण और प्रोत्साहन दिया जा रहा है और उसे विरोध करनेेवालों को सांप्रदायिक कहकर कोसा जा रहा है और बदनाम किया जा रहा है.

स्वतंत्रता के लिए लड़ाई चल रही थी तब सन् १९३१ में कॉंग्रेस नियुक्त ध्वज समिति का जो प्रस्ताव (Report) है, उससे एक बात अधिक स्पष्ट होती है. १९२० में लोकमान्य तिलक के निधन के बाद कॉंग्रेस का नेतृत्व महात्मा गांधी के हाथों में आया. हिंदू-मुस्लिम एकता निर्माण हो और वह दिखाई भी दे ऐसी उनकी तीव्र भावना थी. इसलिए ही गांधीजी ने अनेक राष्ट्रवादी मुसलमानों का विरोध होते हुए भी खिलाफत आंदोलन को कॉंग्रेस का समर्थन घोषित किया. उसी समय, सन् १९२१ में महात्मा गांधी की सूचना से, आंध्र प्रदेश के व्यंकय्या नामक कॉंग्रेस के एक कार्यकर्ता ने हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक, लाल और हरे रंग का एक ध्वज महात्मा गांधी को बनाकर दिया. गांधीजी ने ईसाई-पारसी आदि समाज का प्रतिनिधित्व दर्शाने के लिए उसमें सफेद रंग जोड़ने की सूचना की. उसके अनुसार ऊपर सफेद, बीच में हरा और नीचे लाल, ऐसा सब की एकता का प्रतीक पहला तिरंगा, उसके ऊपर नीले रंग में चरखा ऐसा ध्वज प्रचलित हुआ. आगे चलकर १९२९ में सिक्ख बंधुओं ने राष्ट्रीय ध्वज की इस कल्पना को ही विरोध किया. उनका कहना था कि, अलग-अलग संप्रदायों का अलग-अलग विचार कर उनके बीच एकता साधने का विचार ही सांप्रदायिक (कम्युनल) है. इसलिए सब के बीच की एकता का भाव पुष्ट करने वाला राष्ट्रीय ध्वज होना चाहिए और यदी ऐसा सांप्रदायिक (कम्युनल) ध्वज ही रखना हो, तो हमारे समाज का पीला रंग भी उसमें जोड़ा जाए. यह अत्यंत मूलभूत आक्षेप था.
फिर १९३० के सत्याग्रह के बाद १९३१ में इस पर विचार करने के लिए सात सदस्यों की ध्वज समिति नियुक्त की गई. उसमें पंडित जवाहरलाल नेहरु, सरदार पटेल, मौलाना अब्दुल कलाम आझाद, मास्टर तारासिंह, काका कालेलकर, डॉ. हर्डीकर और पट्टाभिसीतारामय्या थे. उनके आवाहन के प्रतिसाद में प्रचलित ध्वज के लिए जो सूचना और आक्षेप आए, उनमें मुख्यत: दो गुट थे. यह ध्वज बदले ऐसा कहने वालों का मुख्य आक्षेप यह था कि अलग-अलग समुदायों का अलग विचार कर उनके बीच एकता दिखाने का यह विचार ही सांप्रदायिक ‘कम्युनल’ है. इसलिए हमारा ध्वज राष्ट्रीय ध्वज रहना चाहिए. साथ ही वर्तमान प्रचलित ध्वज बल्गेरिया और पर्शिया के ध्वजों से मिलता-जुलता है. हमारा ध्वज वैशिष्ट्यपूर्ण – ‘डिस्टिंक्ट’ हो.

यहीं ध्वज रखें, ऐसा कहने वाला दूसरा गुट था. उनका प्रतिपादन था कि, दस वर्षों से यह ध्वज प्रचलित है, जनमानस में प्रतिष्ठित है इसलिए यहीं ध्वज रखना चाहिए. इस गुट का यह भी कहना था कि इन तीन रंगों का जो सांप्रदायिक भाव (communal connotation) जनमानस में जा चुका है, उसके बदले दूसरा भावात्मक भाव जैसे त्याग, समृद्धि, शांति, ऐसा हम लोगों को समझाने का प्रयत्न करेंगे. इस पर ध्वज समिति ने ऐसा युक्तिवाद किया और जो प्रस्ताव में दर्ज है कि, लोगों को एक ध्वज मिला इसलिए उन्होंने उसे स्वीकार किया, दूसरा मिलेगा तो उसे भी स्वीकार करेंगे; और हम इन रंगों के कितने ही भावात्मक संदर्भ बताने का प्रयत्न करें फिर भी इनके जो सांप्रदायिक संदर्भ (communal connotations) जनमानस में बसे हैं, वे वैसे ही रहेंगे. ऐसा कहते हुए ध्वज समिति ने जो प्रस्ताव एक मत से दिया उसके पहले दो वाक्य विशेष महत्त्व के है. प्रस्ताव में समिति कहती है –

१) ऐसा तय किया गया कि, हमारा राष्ट्रीय ध्वज कलात्मक (Artistic), वैशिष्ट्यपूर्ण (distinct), और असांप्रदायिक (Non communal) हो. २) सर्वानुमति से तय किया गया कि, वह एक ही रंग का हो- और ऐसा एक रंग जो सब रंगों में वैशिष्ट्यपूर्ण (more distinct than another) है, जो सब भारतीयों को समान रूप से स्वीकार्य है (equally acceptable to the Indians as a whole) और जो भारत के प्राचीन इतिहास के साथ प्रदीर्घ परंपरा से जोड़ा गया है (associated with this ancient country by long tradition) वह है भगवा अथवा केसरिया. इसलिए भगवे रंग के आयाताकृति ध्वज पर नीले रंग का चरखा रेखांकित होगा, वह भारत का राष्ट्रध्वज हो.
इसमें महत्त्व की बात यह है कि, अलग-अलग संप्रदायों का अलग-अलग विचार करने को इस ध्वज समिति ने सांप्रदायिक (communal) कहा है और सबको जोड़ने वाला समान रज्जु खेाजकर उस पर जोर देने की वृत्ति को राष्ट्रीय माना है और इस अर्थ में उन्होंने भगवे रंग को (non communal) कहकर राष्ट्रीय ध्वज भगवे रंग का हो, ऐसा एकमत से सूचित किया है.
लेकिन स्वतंत्रता के ६० वर्ष से अधिक अवधि के बाद चित्र एकदम बदला हुआ दिखाई देता है. उस समय जो सांप्रदायिक (communal) कहकर नकारे गए, वे आज सेक्युलर बनकर शेखी बघार रहे है और जो उस समय राष्ट्रीय था उसे आज कम्युनल कहकर कोसा जा रहा है. उस समय भगवा रंग, वंदे मातरम्, रामराज्य की संकल्पना, गौरक्षा आदि विषय राष्ट्रीय थे, उन्हें ही आज सांप्रदायिक (कम्युनल) कहा जा रहा है.
सन् १८९३ में शिकागो में दिए व्याख्यान में स्वामी विवेकानंद ने भारत की एक पहचान ‘मदर ऑफ ऑल रिलिजन्स’ इस प्रकार दी. सारी दुनिया के पीडित और प्रताडित लोगों को भी भारत में हिंदू परंपरा के कारण सम्मानपूर्वक अपने उपासना पंथों का मुक्त अनुसरण करने की अगाध स्वतंत्रता मिली थी, ऐसा उसमें गौरवपूर्ण उल्लेख है. उसी उदार हिंदुत्व को आज सांप्रदायिक कहकर, मूल सांप्रदायिक विचारों को सेक्युलर के नाम तर प्रतिष्ठित करने का खुले आम प्रयास होता देखा जा रहा है. इसीलिए देश के संसाधनों पर अल्पसंख्यकों का (मतलब मुसलमानों का) पहला अधिकार है, ऐसा घोर सांप्रदायिक विचार हमारे प्रधानमंत्री बिना हिचक प्रस्तुत करते है और उच्च एवं सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार नकारने के बाद भी और संविधान सम्मत न होते हुए भी सांप्रदायिक आधार पर आरक्षण देने की निर्लज्ज भाषा कुछ पार्टिंयों के नेता करते है.
यह सब सेक्युलर शब्द की संविधान में हुई घुसपैंठ के कारण खुले आम हो रहा है. इस अभारतीय संकल्पना को, राष्ट्रविरोधी एवं विघटनवादी भावना को संजोने वाली वृत्ति को उखाड़ फेकने की आवश्यकता है.

दूसरी घूसपैंठ

दूसरी घूसपैंठ शिक्षा के क्षेत्र में हुई है. आधुनिक भारत की नीव जिस शिक्षा पर आधारित है, उस शिक्षा के आशय (content) और उद्देश्य में परिवर्तन करने की आवश्यकता है. हमारी आज की शिक्षा केवल पेट भरने के लिए, उपजीविका हेतु अर्थार्जन से जुड़ी है. उदरनिर्वाह के लिए अर्थार्जन आवश्यक है ही, और अधिक आरामदायी जीवन जीने के लिए अधिक अर्थार्जन की इच्छा रखना, उसके लिए प्रयास करना भी ठीक है; लेकिन अर्थार्जन जीवन का साधन है, वह अच्छा हो यह ठीक है, लेकिन जीवन का साध्य क्या है? उसका पता ही नहीं. एक स्थान से दूसरी ओर जाने के लिए साधन के रूप में वाहन आवश्यक है. वह अधिकाधिक आरामदायी होने की इच्छा होने में भी कुछ अनुचित नहीं. लेकिन वह वाहन लेकर जाना कहॉं है, यही पता न हो तो उस वाहन का क्या उपयोग? लेकिन आज तो जीवन का साधन ही साध्य बनता जा रहा है और सर्वत्र केवल साध्यहीन भागदौड चल रही है.
अधिक शिक्षा, उच्च शिक्षा का संबंध केवल कमाई (अर्थार्जन) से जुड़ने के कारण सब गडबड हुई है. अधिक शिक्षित व्यक्ति अधिक भौतिकवादी, उपभोगवादी और आत्मकेन्द्रित, स्वार्थी बन रहा है. शिक्षा के बारे में विचार करने के लिए स्वतंत्र भारत में जितने आयोग नियुक्त किए गए, उन सब ने नैतिक शिक्षा के अभाव की ओर अंगुलीनिर्देश कर इस दृष्टि से कुछ उपाय सुझाए है. शिक्षा संबंधित कोठारी आयोग ने भी सुझाया है कि, नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास के लिए विद्यार्थींयों को धर्म की शिक्षा दी जानी चाहिए. धार्मिक शिक्षा का अर्थ ही नैतिक शिक्षा है. लेकिन सेक्युलॅरिज्म के नाम पर धार्मिक और नैतिक बातों का त्याग कर देने के कारण हम ‘जैसे थे’ की स्थिति में है. स्वतंत्र भारत की शिक्षा व्यवस्था का विचार करते समय हमारा देश, उसकी प्राचीन विरासत, जीवन-दृष्टि, उसके अनुसार संस्कारों की योजना का विचार न करने के कारण उधेड़-बुन की जटिल स्थिति निर्माण हुई है. आधुनिकता के नाम पर पश्‍चिमीकरण का चल रहा प्रयास, उनसे उधार लिये जीवन के तत्त्वज्ञान का पुरस्कार करने के कारण नैतिकता का उच्चाटन होकर भौतिकवाद, आत्मकेन्द्रि वृत्ति और समाज की समस्याओं के बारे में अनास्था की घुसपैंठ इस क्षेत्र की पवित्रता को खराब कर रही है. शिक्षा का मूल उद्देश्य ही हम गवॉं बैठे है. राह भटकना यह अन्य क्षेत्रों की तरह इस क्षेत्र के लिए भी शाप साबित हुआ है.

तीसरी घुसपैंठ …

शहरों का विकास मतलब भारत का विकास, ऐसा समीकरण बनने के कारण शहर केन्द्रित विकास का प्रारूप और जहॉं सच्चा भारत बसा है वे देहात उपेक्षित, ऐसा आज का चित्र है. वास्तव में जहॉं सच्ची संपत्ति मतलब अन्न निर्माण किया जाता है, वे देहात उजड रहें हैं और कागजी संपत्ति निर्माण करने वालों का महत्त्व बढ़ रहा है. मराठी कवि मंगेश पाडगावकर कहते है –

पिकवी कुणी न काही विकतात मात्र सारे
वाहून भार ह्यांचा शरमून जाय माती
(कोई उगाता नहीं है, पर बेचने तो सब बैठे हैै
ऐसे लोगों का भार ढोकर यह धरति शर्मसार हो रही है)

देहात में रहने में प्रतिष्ठा, संपन्नता, शिक्षा, आरोग्य, व्यापार, शुद्ध पानी और सुचारू यातायात होगी, ऐसा चित्र सामने रखकर भारत के विकास की योजना तैयार हुई होती, तो भारत, भारत बना रहता. छ: लाख देहातों में बसा भारत, भारत का बलस्थान था. देहात स्वयंपूर्ण थे, इसलिए अनेक विदेशी शासक आने के बाद भी भारत फिर उठ खड़ा हुआ. राष्ट्रीय अस्मिता कायम रही. अब भारत में इंडिया बढ़ रहा है, पनप रहा है. भारत उजड रहा है. गरीब हो रहा है. यह अभारतीय विकास की जो उल्टी गंगा बह रही है, उसकी दिशा बदलने की आवश्यकता है.

घुसपैंठ चार …

समाज में जीवन श्रेष्ठता की हमारी कल्पनाएँ भी बदल गई है. चरित्र और प्रतिष्ठा का संबंध नहीं रहा. धनवान होना मतलब प्रतिष्ठित और चरित्रवान ऐसी कल्पना बन रही है. धनवानों ने धन किसी भी मार्ग से जमा किया हो, फिर भी वे प्रतिष्ठित माने जाते है. जीवनमूल्यों का निकष ही कमजोर हुआ है.
विख्यात विचारक डॉ. एस. के. चक्रवर्ति के मतानुसार किसी का जीवनस्तर (Standered of living) उच्च है, ऐसा जब हम कहते है, तब सामान्यत: वह कितना महँगा जीवन जीता है, ऐसा ही अर्थ अभिप्रेत होता है. उसका पैसा ही नहीं तो नैसर्गिक स्रोत के प्रयोग का दर्जा भी अधिक है (standard of consumption) ऐसा कहना चाहिए और जीवन का दर्जा उसका जीवन कैसे मूल्याधिष्ठित है (based on values) इस पर निश्‍चित होना चाहिए.
अमृतलाल वेगड नामक नर्मदा परिक्रमा के साधक, उत्तम चित्रकार और लेखक है. वे बहुत छोटे थे तब चित्रकला सीखने के लिए शांतिनिकेतन में विख्यात चित्रकार श्री नंदलाल बोस के पास गये. अनेक वर्ष अध्ययन करने के बाद अध्ययन पूर्ण कर, वापस लौटते समय उन्होंने गुरू नंदलाल बोस के आशीर्वाद लेने के लिए उनके पॉंव छूए. तब नंदलाल बोस ने अपने शिष्य को क्या आशीर्वाद दिया होगा? उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, तेरा जीवन सफल न हो.’’ उन्होंने आगे कहा, ‘‘दुनिया में सफल होने वाले बहुत है. उनकी कमी नहीं. रोज उनके नाम समाचारपत्रों में छपते रहते हैं. तू अपना जीवन सार्थक कर.’’

जीवन सार्थक करने का मर्म बताते हुए अमृतलाल वेगड कहते है कि, मैं समाज से कम लेता हूँ या कम मिलने की अपेक्षा रखता हूँ और समाज को अधिक देने का प्रयास करता हूँ, यही जीवन सार्थक करने का मर्म है.

विवेकानंद केन्द्र की प्रार्थना में एक श्‍लोक है –

जीवने यावदादानम् स्यात् प्रदानम् ततो्ऽधिकम् |
इत्येषा प्रार्थनाऽस्माकम् भगवन् परिपूर्यताम् |
अर्थ : जीवन में समाज की ओर से मुझे जितना मिला उससे अधिक मैं समाज को दूँगा, हे भगवन् हमारी यह प्रार्थना तू पूर्ण कर.

हमारे यहॉं जो अधिक त्याग करता है वह श्रेष्ठ, ऐसी धारणा थी. ‘त्येन त्यक्तेन भुञ्जीथा’ यह सूत्र जीवन का आधार होने के कारण त्यागाधारित जीवन का गौरव, यह मूल्य समाज में प्रतिष्ठित था.
हम कई बार दोहरी निष्ठा के शिकार होते है. ऐसे मूल्य माननेवालों को हम व्यक्तिगत जीवन में महत्त्व देते है, लेकिन सार्वजनिक जीवन में उपभोगवादी और अमीरों का ही बोलबाला दिखता है. इस दोहरी वृत्ति को सीमापार करना आवश्यक है.

घुसपैंठ पॉंच …

हमारे समाज में की अधिकांश व्यवस्था राजसत्ताकेन्द्रित बनने के कारण राजनीतिक क्षेत्र के व्यक्तियों का प्रभाव समाज में बढ़ रहा है. सत्ताधारियों ने भी हम ही सब करेंगे, सत्ता ही सब करेगी ऐसा आभास निर्माण करने का प्रयास किया. इस कारण समाज की राजसत्ता पर की निर्भरता बढ़ रही है. विनोबा भावे कहते थे कि, समाज जितना राजसत्ता पर निर्भर होता है, उतना ही वह अकर्मण्य और दुर्बल बनता है. हमारे यहॉं हजारों वर्षों से राजसत्ता का महत्त्व मान्य करने के बाद भी उसका वर्चस्व समाज में सीमित था. इसी कारण समाज का सर्वस्व कभी भी राजसत्ता के अधीन नहीं था. समाज ने राजसत्ता से परे अपनी स्वतंत्र व्यवस्थाएँ निर्माण की थी. लेकिन अब स्थिति बदल गई है. कल्याणकारी राज्य (Welfare state) यह भारतीय परंपरा की रचना नहीं है, ऐसा कवि रवीन्द्रनाथ टागोर कहते है. उस समय बंगाल में पानी का दुर्भिक्ष्य होने पर लोग सहायता के लिए सरकार के पास गये, उसकी आलोचना करते हुए रवीन्द्रनाथ कहते है कि, चाय और शराब की तृष्णा भारतीय समाज में ब्रिटिश सरकार ने निर्माण की. उस तृष्णा का शमन करने की व्यवस्था ब्रिटिश सरकार अवश्य करे. लेकिन पानी की प्यास हमें युगोंयुगों से रही है. उसका शमन करने की व्यवस्था हमारे पास थी. उसके लिए सरकार के सामने हाथ या झोली फैलाने की क्या आवश्यकता है? शिक्षा, स्वास्थ्य, जल, अन्न, न्याय आदि के पूर्ति की समाज में स्वतंत्र व्यवस्था थी. वे अधिकतर राज्य की कक्षा से बाहर थी. उन आवश्यकताओं की पूर्ति करने की समाज की अपनी स्वयं की व्यवस्था थी. भारतीय समाज स्वयंपूर्ण एवं स्वयंसिद्ध था, स्वावलंबी था इसलिए रवीन्द्रनाथ टागोर कहते है कि, भारत को राजनायकों की अपेक्षा समाजनायकों की अधिक आवश्यकता है. यह समाजनायक कैसा हो और कैसे चुने इसका वर्णन भी उन्होंने ‘स्वदेशी समाज’ नाम के अपने आलेख में किया है.

कंपनी, संगठन अथवा समाज की सच्ची शक्ति एककेन्द्रित सत्ता (mono centered power) होने की अपेक्षा बहुकेन्द्रित (multi centered power) सत्ता रचना में होती है ऐसा प्रतिपादन करने वाला एक पुस्तक ‘Starfish and Spider’ हाल ही में पढ़ा. Spider मतलब मकडी. उसके असंख्य पॉंव होते है और उनमें से पॉंच-सात टूट भी गए, तो मकडी का कुछ नहीं बिगडता. उसकी सब क्रियॉंए चलती ही रहती है. लेकिन उसकी पूरी प्राणशक्ति उसके जिस छोटे सिर में समायी रहती है, वह सिर कुचला जाते ही वह मकडी समाप्त हो जाती है. ऐसा ही कुछ कंपनियों, संगठनों और समाज का भी होता है. एक ही सत्ता केन्द्र होता है और उसके नेस्तनाबूत होते ही वह कंपनी, संगठन या समाज नष्ट हो जाता है. लेकिन स्टार फिश यह एक ऐसी मछली है कि जिसकी प्राणशक्ति उसके शरीर में एक ही स्थान पर समायी नहीं होती, तो अनेक स्थानों में समायी होती है. इसलिए उस मछली के कैसे भी और कितने भी टुकड़े किए तो भी वह मरती नहीं, विपरीत उसके जितने दो या तीन टुकड़े हुए होंगे उनमें से उतनी ही नई मछलियॉं निर्माण होती है. यह समझाते हुए इस पुस्तक में एक घटनाक्रम दिया है.
लॅटिन अमेरिका के मूल निवासियों के जीवन का गहरा अध्ययन करने वाले टॉम नेविन इस अभ्यासक ने यह बात बताई है. सोलवी सदी में स्पेन से अनेक टुकडियॉं शस्त्रास्त्र लेकर सोना हासिल करने के लिए (कमाने के लिए नहीं हासिल करने के लिए – To grab) निकली. उनमें की एक टुकडी इसवी सदी १५१९ में लॅटिन अमेरिका के ऍझटेक नामक जाति के प्रदेश में पहुँची. वहॉं के बड़े नगर, चौड़े रास्ते, पानी की नहरें, विशाल मंदिर, ६० हजार लोग खरेदी-बिक्रि कर सके ऐसा विशाल बाजार और पूरी स्पॅनिश सेना रह सकेगी इतना विशाल उनके प्रमुख का महल देखकर वे चकित हो गए. उन्होंने प्रमुख के सिर पर बंदूक तानकर धमकाया, सब सोना हमें सौंप दो अन्यथा तू जान गवॉंएगा. मॉंटेझुमा नाम के उस नेता को ऐसे जबरदस्ती लूटने वाले लोग पहली बार मिले थे. उसने अपने प्राण बचाने के लिए सब सोना दे दिया. स्पॅनिश लोगों ने सोना लेने के बाद उस नेता को भी मार डाला. दो वर्ष से भी कम समय में इसवी सदी१५२१ में ऍझटेक साम्राज्य और सभ्यता नष्ट हुई. ऐसा ही इतिहास इंकाज नाम की जनजाति का भी है. इसवी सदी १५३२ में स्पॅनिश लुटेरों ने इंकाज के अटाहुआल्पा नाम के नेता को पकडकर मार डाला. उसकी सब संपत्ति लूट ली. इसवी सदी १५३४ तक इंकाज का साम्राज्य और सभ्यता नष्ट हुई. ऐसा निरापद चलता ही रहा और अमेरिका महाद्वीप पर स्पॅनिश लोगों का आधिपत्य स्थापित हुआ. ऐसे ही विजय के उन्माद में उनकी भिडंत इसवी सदी १६८० में अपाची नाम की मूल अमेरिकी जनजाति से हुई. अन्यों की तुलना में वे लोग अधिक गरीब और पिछड़े थे. स्पेन के लोगों ने उन्हें
कॅथॉलिक ईसाई बनाकर उनसे खेती में मजदूरी कराई. लेकिन उनका नेता परास्त होने के बाद भी अधिकतर लोगों ने स्पॅनिशों का विरोध जारी रखा, युद्ध किया और जो जो स्पॅनिश लोग या चिन्ह उनके हाथ लगें उन्हें वे नष्ट करते गए. उस सदी के अंत तक वहॉं का स्पॅनिशों का आधिपत्य समाप्त हुआ और उनके पराक्रम के कारण, पुरुषार्थ के कारण बाद के दो सौ वर्ष तक वे स्पॅनिश आक्रमण को थोप सकें.
टॉम नेविन कहता है कि, ऐसा क्यों हुआ? अपाची लोगों के पास ऍझटेक या इंकाज की सेना की तुलना में सबल सेना या शस्त्रास्त्र नहीं थे और स्पॅनिश सेना पहले की तुलना में कमजोर भी नहीं हुई थी. फिर क्या हुआ था? नेविन बताता है कि, ‘अपाची’ समाज अलग तरीके से संगठित (differently organised) था. उसका शक्तिकेन्द्र या प्राणशक्ति एक ही स्थान पर केन्द्रित नहीं थी. वह संपूर्ण समाज में बिखरी थी, विकेन्दित थी. वे असंगठित नहीं थे, विशेष तरह से संगठित थे. उनके नियम थे, परंपराएँ थी; लेकिन वह सत्ताधारियों की ओर से लादी नहीं जाती थी. उनके अनेक आदर्श समाज में थे. उन्हें देखकर समाज उनका अनुसरण करता था. उनके पास सत्ताधारियों से अधिक प्रभावी आध्यात्मिक-सांस्कृतिक नेतृत्व था. उन्हें नँतन कहते थे. वे नँतन समाज से कम से कम लेकर समाज के लिए जीते थे. उनकी ओर देखकर वह समाज अपना आचरण निश्‍चित करता था. ऐसा नँतन एक नहीं था, अनेक थे; समाज में बिखरे थे. वे समाज के साथ रहते थे. उनका संपूर्ण जीवन समाज के सामने पारदर्शी कॉंच के समान था. वे लोगों को तुम ऐसा करो, ऐसा उपदेश नहीं करते थे. वे केवल जो योग्य है वह ही आचरण करते और समाज उनका अनुसरण करता था. इस समाज शक्ति के सामने स्पॅनिश सेना हार गई. यह समाज शक्ति का प्रताप था.
यह कहानी इतने विस्तार से बताने का कारण इतना ही है कि, सियासी सत्ता का समाज मे का वर्चस्व कम कर, सियासी सत्ता के हाथों में समाज का सर्वस्व रहने की संकल्पना सीमापार खदेड कर स्वावलंबी, स्वयंसिद्ध, स्वयंपूर्ण समाजरचना और व्यवस्था नए सिरे से प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता है.

घुसपैंठ छ: …

राजसत्ता केन्द्रित समाजरचना के समान ही सत्ता का केन्द्रीकरण भी अयोग्य ही है. सत्ता विकेन्द्रित न रहकर एककेन्द्री रही तो भ्रष्टाचार और अत्याचार (coercion) की संभावना बढ़ती है. पहले देहातों के निर्णय देहातों में ही होते थे. अब यह निर्णय दिल्ली या मुंबई में होने के परिणाम हम भुगत ही रहे है. मेरे एक परिचित ने अपने गॉंव में ही बच्चों को अच्छी शिक्षा मिलनी चाहिए इसलिए शाला निकालने का निर्णय लिया, अनुमति के लिए उसे कई बार मुंबई के चक्कर लगाने पड़े. फिर भी अनुमति मिली नहीं. गॉंव की प्राथमिक आवश्यकताओं के लिए गॉंव स्वावलंबी क्यों न हो? पहले गॉंव स्वावलंबी थे. इस कारण गॉंव में एकता थी, खुशहाली थी, शांति थी, गॉंव सशक्त थे. आज सारी सत्ता, शक्ति, ऊर्जा और पैसा (वित्त) देश और राज्यों की राजधानी में जमा हुआ है. यह व्यवस्था बदलकर अधिकारों का अधिकाधिक विकेन्द्रीकरण करनेवाली, लेकिन देश की एकता अबाधित रखने वाली नई व्यवस्था लाने का विचार करना चाहिए.

घुसपैंठ सात …

भारत का आत्मा ही आध्यात्मिक होने के कारण हमारे यहॉं जीवन यह एक यज्ञ था; एक उत्सव था. आज उसका बाजारीकरण हो चला है और इस बाजारीकरण ने समाज के जीवनमूल्य ही बदल डाले है. भौतिकतावाद और उपभोगपर आधारित विकास की संकल्पना के झॉंसे में आकर हमने यह बाजारीकरण की घूसपैंठ मान्य की है. पहले श्रेष्ठ जीवनपद्धति और संस्कृति से युक्त एक देश के रूप में भारत की ओर दुनिया आकर्षित होती थी. आज एक बड़े बाजार के रूप में भारत का आकर्षण बढ़ रहा है. इस देश के नागरिक ‘ग्राहक’ है. उन्हें क्या चाहिए, क्या नहीं यह सब बाजार तय कर रहा है. पहले आवश्यकता को ध्यान में रखकर वस्तुओं का उत्पादन किया जाता था. मॉंग के अनुसार पूर्ति का प्रयास रहता था. अब लोगों की आवश्यकताए उत्पादक तय करते है और इसके लिए विज्ञापनों के माध्यम से आवश्यकता निर्माण की जाती है. ‘युवर प्राईड ऍण्ड नेबर्स एन्वी’ जैसे विज्ञापनों से हमारे मूलभूत संस्कार मिटाए जा रहे है. पैसा और पैसा, यहीं एकमात्र उद्देश्य शेष रहा है. क्रय-शक्ति बढ़ाने के लिए कर्ज दिया जाता है. मॉंग बढ़नी चाहिए इसलिए विज्ञापनबाजी बढ़ रही है. इस सब के लिए होने वाला अधिक व्यय ग्राहकों से वसूल कर लाभ भी कमाया जा रहा है. उपभोग की वासना जगाकर उपभोग के लिए पैसा और पैसे के लिए पागलों के समान भागना. इसमें हम हमारी आत्मा, आनंद, समाधान, सुख सब खो रहें हैं.
भारतीय संस्कृति उपभोगवादी नहीं अध्यात्मवादी है. यहॉं का चिंतन है कि, हर एक में देवत्व है और यह देवत्व प्रकट कर मुक्ति का आनंद लेना यही मानवजीवन का उद्दिष्ट है. इसके लिए हमारें यहॉं भक्तियोग, ध्यानयोग, कर्मयोग और ज्ञानयोग में से किसी एक या अनेक अथवा सब का उपयोग कर मुक्त होना चाहिए, ऐसा दिशादर्शन है.
आधुनिक बाजारीकरण में फालतू आवश्यकताएँ निर्माण कर स्पर्धा, असूया, लोभ, आसक्ति का आधार लेकर उत्पादनों की अवास्तव मॉंग निर्माण की जा रही है. इस कारण शांति मरिचिका के समान दूर भाग रही है. इसलिए बाजारीकरण की इस अभारतीय व्यवस्था को सीमापार कर हमारे शाश्‍वत जीवनमूल्यों को संजोने वाली आधुनिक, लेकिन हमारी व्यवस्था स्थापन करनी चाहिए.
इन सब घुसपैंठ से मुक्त होने का मार्ग दुष्कर लगता हो, लेकिन वह असंभव तो निश्‍चित ही नहीं है. लेकिन इसके लिए हमें हमारा ‘स्व’ जगाना होगा. हम स्वतंत्र, स्वराज्य, स्वाभिमान जैसे शब्दों का सरेआम प्रयोग करते है. लेकिन इसमें ‘स्व’ मतलब हम, राष्ट्र के रूप में कौन है, प्राचीन समाज के रूप में हमारी क्या पहचान है पहले इसका समर्पक उत्तर खोजना आवश्यक है. सॅम्युएल हंटिग्टन इस विख्यात अमेरिकी चिंतक की एक बहुचर्चित पुस्तक है ‘हु आर वुई’ उसमें वे कहते है, ‘‘जब तक समाज के रूप में हम कौन है यह हम तय नहीं करते, तब तक राष्ट्र के रूप में हम हमारी प्राथमिकताएँ, हमारी दिशा तय नहीं कर सकते.’’

दुनिया के हर राष्ट्र को वे कौन है, उनकी अस्मिता, पहचान, उनका मूल, उनके पूर्वज कौन है इसकी स्पष्ट कल्पना है. दुर्भाग्यवश भारत में उस बारे में एकवाक्यता नहीं, संभ्रम है. यह संभ्रम दूर कर हमारे प्राचीन समाज की एकता का आधार पहचानकर, हमारा ‘स्व’ पहचानकर उसके प्रकाश में हमारी नीतियों का विचार किया, तो हम हमारे इस संभ्रम के, आत्मविस्मृति के घेरे से बाहर निकल सकेंगे. हमारा ‘स्व’ यदि जग गया और हम स्वाभिमान से भर गए तो हमारा पुरुषार्थ जागेगा और उसके बल पर हम इन सब घुसपैंठियों को सीमापार भगाकर, हमारे ऊपर के सब संकटों को नेस्तनाबूत कर फिर एक बार हमारा पुरुषार्थ और पराक्रम से युक्त, संपन्न, समाधानी और आनंदपूर्ण समाज जीवन हम निर्माण कर सकेंगे. जीवन जीने का और मनुष्य जन्म सार्थक करने का हमारा यह स्वयंसिद्ध आदर्श दुनिया के सामने प्रस्तुत कर संघर्ष, स्पर्धा, असूया से ग्रस्त मानव जाति को चिरशांति, समन्वय और संवाद का मार्ग दिखानेवाला दीपस्तंभ भी हम बन सकेंगे.
स्वामी विवेकानंद ने भारत के लिए यहीं स्वप्न देखा था और यहीं आदर्श निर्माण करने का आवाहन भारतमाता के सपूतों को किया था. वयं अमृतस्य पुत्रा: कहकर उन्होंने भारतीय समाज का सिंहत्व जगाने का आवाहन किया था. इस वर्ष उनके जन्म को १५० वर्ष पूर्ण हो रहे है. उस उपलक्ष्य में यह ‘स्व’ जागरण का पुरुषार्थ हम सब मिलकर प्रकट करे.