महामारी के इस दौर में संघ के स्वयंसेवकों और अन्य कोरोना योद्धाओं ने यह देश हमारा है, यह समाज अपना है, इन सब भावों के साथ जरूरतमंदों की मदद की। इन लोगों ने अपनी चिंता छोड़ दिन-रात पीड़ितों की सेवा करके ‘वयं राष्ट्रांगभूता’ के भाव का ही दर्शन कराया है
भारत के साथ पूरी दुनिया कोरोना वायरस के कारण निर्मित परिस्थिति से जूझ रही है। भारत की वैविध्यपूर्ण और विशाल जनसंख्या को देखते हुए इस लड़ाई में दुनिया के अन्य दिग्गज देशों से हमारी स्थिति काफी अच्छी है, ऐसा कह सकते हैं। पहली बार लोगों ने ‘लॉकडाउन’ का अनुभव किया। इसके अनुकूल और विपरीत परिणामों की चर्चा भी सर्वत्र चल रही है। धीरे-धीरे ‘लॉकडाउन’ खुल रहा है, सावधानीपूर्वक आगे बढ़ना होगा। इस एकदम नए प्रकार की बीमारी से उत्पन्न परिस्थिति से निपटने के तरीके भी नए रहेंगे और इसके बाद की दुनिया भी पहले के समान नहीं रहेगी। जनजीवन को सामान्य स्थिति में लाना आसान नहीं होगा। संकल्पबद्ध होकर, नई राह पर साथ मिलकर, दृढ़तापूर्वक चलना होगा।
भारत की कोरोना के विरुद्ध लड़ाई, दुनिया के अनेक देशों की लड़ाई से अलग है, विशेष है। दुनिया के अधिकतर देशों में राजसत्ता सर्वोपरि है। समाज की सारी व्यवस्थाएं राज्य पर आधारित होती हैं। इसीलिए उसे कल्याणकारी राज्य की संज्ञा प्राप्त है। ऐसी विपत्ति में राज्य व्यवस्था, प्रशासन तत्परता से सक्रिय भी होता है और लोग भी शासकीय व्यवस्था के सक्रिय होने की प्रतीक्षा करते हैं। भारत का चित्र इससे अलग है। भारत की परंपरा में समाज का एक स्वतंत्र अस्तित्व है, ताना-बाना है। उसकी अपनी कुछ व्यवस्थाएं हैं। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपने निबंध ‘स्वदेशी समाज’ में स्पष्ट कहा है कि कल्याणकारी राज्य, भारत की परंपरा नहीं है। भारत में परंपरा से कुछ महत्व की बातें केवल राज्य पर आधारित होती रही हैं, बाकि सब बातों की चिंता करने की समाज की अपनी राज्य निरपेक्ष व्यवस्थाएं रहती आई हैं। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा, ‘‘वह समाज, जो अपनी व्यवस्थाओं के लिए राज्य पर कम से कम अवलम्बित रहता है वह ‘स्वदेशी’ समाज है।’’ आचार्य विनोबा भावे भी कहते हैं, ‘‘जब तक हम गुलाम थे तब तक राजशक्ति का महत्व था। अब हम स्वतंत्र हो गए हैं। अब लोकशक्ति जगाने का महत्व है।’’ वे आगे कहते हैं, ‘‘जो समाज अपनी आवश्यकताओं के लिए राज्य पर अधिक अवलम्बित होता है वह समाज अकर्मण्य होता है, दुर्बल होता है। अ-सरकारी कार्य अधिक असरकारी होता है।’’
पहले ‘हम’ अंग्रेजों के गुलाम थे। 15 अगस्त, 1947 को ‘हम’ स्वतंत्र हुए। 26 जनवरी, 1950 से ‘हम’ ने अपना यह संविधान स्वीकार किया। स्वतंत्रता के पहले, स्वतंत्र होने वाले, संविधान को स्वीकार करने वाले इस ‘हम’ का सातत्य हमारी असली पहचान है। यहां आक्रमण हुए, राजा पराजित हुए, परकीय शासन रहा, पर यह ‘हम’ कभी पराजित नहीं हुआ। यह ‘हम’ यानी यहां का समाज यानी हमारा राष्ट्र है। यह पश्चिम के ‘नेशन स्टेट’ से भिन्न है, इसे समझना होगा। पूर्व राष्ट्रपति डॉ. प्रणब मुखर्जी जब संघ के स्वयंसेवकों को सम्बोधित करने के लिए नागपुर पधारे तब अपने वक्तव्य में उन्होंने यही बात रेखांकित की थी। उन्होंने कहा, ‘‘पश्चिम की राज्याधारित राष्ट्र की संकल्पना और भारतीय जीवनदृष्टि आधारित राष्ट्र की भारतीय संकल्पना भिन्न है।’’ इसीलिए भारत में किसी भी मानव निर्मित या प्राकृतिक आपदा के समय प्रशासन के साथ, समाज भी राहत और पुनर्स्थापन के कार्य में सक्रिय दिखता है।
कोरोना वायरस के इस अभूतपूर्व संकट के समय प्रशासनिक व्यवस्था के प्रतिनिधि सुरक्षाकर्मी, डॉक्टर, नर्स, अन्य वैद्यकीय सहायक, सफाई कर्मचारी आदि सभी ने जी-जान से अपना कर्तव्य निभाया है। यह करते समय इस संक्रमणशील बीमारी के संक्रमण की संभावना को जानते हुए भी निष्ठापूर्वक अपना कार्य वे करते रहे हैं। कई लोग संक्रमित भी हुए, कुछ की जानें भी इस मोर्चे पर गर्इं। इसलिए उन्हें ‘कोरोना-योद्धा’ का सम्बोधन देना सार्थक ही है। समाज के सभी वर्गों ने, विशेषत: सेना और पुलिस बल ने भी इनका अभिनन्दन किया है। वे इसके अधिकारी भी हैं। कोई यह कह सकता है कि यह उनके शासकीय दायित्व का हिस्सा था, इसलिए उन्होंने किया, सभी करते हैं। परंतु जिस लगन, निष्ठा और समर्पण भाव से उन्होंने यह किया, अभी भी कर रहे हैं, यह ध्यान देने योग्य है। इसका सम्मान होना चाहिए।
इन शासकीय और अर्ध-शासकीय कर्मचारियों के साथ-साथ समाज का बहुत बड़ा वर्ग अपने प्राण संकट में डालकर भी सम्पूर्ण देश में, पहले दिन से आज तक सतत सक्रिय रहा है। वैसे यह उनके दायित्व का भाग नहीं है, न ही उन्हें इसके बदले मे कुछ पाने की अपेक्षा है, फिर भी ‘अपने समाज की संकट के समय सहायता करना मेरा दायित्व है’, इस सामाजिक दायित्वबोध से, अपनत्व के भाव से प्रेरित होकर वह कार्य करता आया है। यही ‘वयं राष्ट्रांगभूता’ का भाव है। बाढ़, भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदा के समय राहत कार्य और इस संक्रमणशील बीमारी के समय, स्वयं संक्रमित होने की संभावना को जानते हुए भी, सक्रिय होना इनमें अंतर है। समाज का यह सक्रिय सहभाग सम्पूर्ण देश में समान रहा है। यह जागृत, सक्रिय राष्ट्रशक्ति का परिचायक है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 4,80,000 स्वयंसेवकों ने अरुणाचल प्रदेश से लेकर कश्मीर और कन्याकुमारी तक 85,701 स्थानों पर सेवा भारती के माध्यम से 1 करोड़ 10 लाख 55 हजार परिवारों को राशन के किट पहुंचाए हैं। 7 करोड़ 11 लाख 46 हजार भोजन के पैकेट्स जरूरतमंदों के बीच बांटे हैं। करीब 63,00000 मास्क का वितरण किया है। विभिन्न राज्यों में रहने वाले अन्य राज्यों के 13,00000 लोगों की सहायता की है। 40,000 यूनिट्स रक्तदान किया है। प्रवासी मजदूरों की सहायता हेतु 1,341 केंद्रों के माध्यम से 23,65,000 प्रवासी मजदूरों को भोजन और 1,00000 मजदूरों को दवाई तथा अन्य वैद्यकीय सहायता की है। घुमंतू जनजाति, किन्नर, देह व्यापार करने वाले, धार्मिक स्थानों पर श्रद्धालुओं पर निर्भर बंदर आदि पशु-पक्षी, गोवंश, इन सभी की सहायता की है। पढ़ने के लिए बड़े नगरों में आए और अपने स्थान पर फंसे छात्रों की सहायता की है। विशेषत: उत्तर पूर्वांचल के छात्रों के लिए विशेष ‘हेल्प लाइन’ बना कर उनकी सहायता भी की और उनके परिवारजन से उनकी बातचीत भी करवाई। मंदिर आदि धार्मिक स्थानों पर भिक्षावृत्ति करने वाले भी इस सहायता यज्ञ के प्रसाद से वंचित नहीं रहे।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 4,80,000 स्वयंसेवकों ने अरुणाचल प्रदेश से लेकर कश्मीर और कन्याकुमारी तक 85,701 स्थानों पर सेवा भारती के माध्यम से 1 करोड़ 10 लाख 55 हजार परिवारों को राशन के किट पहुंचाए हैं। 7 करोड़ 11 लाख 46 हजार भोजन के पैकेट्स जरूरतमंदों के बीच बांटे हैं। करीब 63,00000 मास्क का वितरण किया है।
अनेक स्थानों पर संक्रमित बस्तियों में जाकर स्वयंसेवकों ने सहायता की है। किसी भी दल की सरकार हो, सभी राज्यों में जहां भी प्रशासन ने जो सहायता मांगी, उसकी पूर्ति स्वयंसेवकों ने की है। भीड़ को नियंत्रित करने, घर वापस होने वाले प्रवासी श्रमिकों का रजिस्ट्रेशन, ऐसे असंख्य कार्य प्रशासन के आवाहन पर जगह-जगह स्वयंसेवकों ने किए हैं। पुणे में प्रशासन के आवाहन पर स्वयंसेवकों ने अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ मिलकर जोखिम वाली (रेड जोन) घनी बस्तियों में जाकर 1,00000 लोगों की ‘स्क्रीनिंग’ की और संदेहास्पद व्यक्तियों को अधिक जांच के लिए प्रशासन को सौंपा।
केवल संघ ने ही नहीं, अनेक सामाजिक, धार्मिक संस्था, मठ, मंदिर, गुरुद्वारा इन सभी ने स्थान-स्थान पर इस सामाजिक यज्ञ में अपना सहभाग दिया है। यह, शासकीय व्यवस्था के अलावा, समाज की अपनी व्यवस्था है। यह सब ‘वयं राष्ट्रांगभूता’ के भाव-जागरण के कारण ही संभव है। इस भाव जागरण के कारण ही विविध भाषा बोलने वाला, अनेक जातियों के नाम से जाना जाने वाला, विविध देवताओं की उपासना करने वाला सम्पूर्ण भारत में रहने वाला यह समाज यानी ‘हम’ एक हैं, प्राचीनकाल से एक हैं, इस भाव जागरण के कारण यह संभव है।
मैं इस विराट ‘हम’ का एक अंगभूत घटक हूं, यह भाव ही स्वयं को संकट में डाल कर भी, किसी प्रसिद्धि या अन्य प्रतिफल की अपेक्षा रखे बिना समाज के लिए सक्रिय होने की प्रेरणा देता है। किसी भी जाति का, भारत के किसी भी राज्य में रहने वाला, पढ़ा, अनपढ़, धनवान, धनहीन, ग्रामीण, शहरी, वनांचल में या नगरों में रहने वाला यह सारा समाज मेरा अपना है ऐसा भाव जगाना माने ‘राष्ट्र’ जागरण करना है। मैं, मेरा कुटुम्ब, परिवार, आस-पड़ोस, गांव, जनपद, राज्य, देश, समूचा विश्व, सम्पूर्ण चराचर सृष्टि ये सभी मेरी चेतना के क्रमश: विस्तृत और विकसित होने वाले दायरे हैं। इनमें संघर्ष नहीं, ये परस्परपूरक हैं, इनमें समन्वय साधने का मेरा प्रयास होना चाहिए। यही भारत का सनातन अध्यात्म-आधारित एकात्म और सर्वांगीण चिंतन रहा है। इसी चिंतन ने भारत को दुनिया में हजारों वर्षों से एक विशिष्ट पहचान दी है। इसी कारण ‘हम’ सब इसकी अलग-अलग इकाइयों से जुड़कर अपनत्व की परिधि को विस्तारित करते रहते हैं। यही ‘अपनत्व’ ऐसे संकट काल के समय स्वाभाविक सक्रिय होने की प्रेरणा देता है। इसी के कारण जो समाज का ताना-बाना बुना जाता है, इससे समाज गढ़ा जाता है।
यह समाज गढ़ने का काम तात्कालिक नहीं होता है, न ही वह अपने आप होता है। सचेतन और दीर्घकाल के सतत और सहज प्रयास के परिणामस्वरूप यह समाज गढ़ने का कार्य होता है। पीढ़ियां लग जाती हैं, तब यह संभव होता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ही लीजिए जिसका निर्माण ही इस सम्पूर्ण समाज में एकत्व का भाव जगाकर उसे एकसूत्र में गूंथकर गढ़ने का है। आज जो संघ कार्य का व्यापक विस्तार, प्रभाव और संगठित शक्ति का अनुभव सब कर रहे हैं, उसमें संघ के कार्यकर्ताओं की पांच पीढ़ियां खप गई हैं। हजारों की संख्या में, एक ही कार्य को ‘मिशन’ मानकर, लोगों ने सारा जीवन गला डाला है। केवल संघ ही नहीं, असंख्य सामाजिक, धार्मिक संस्था, शिक्षक, व्यापारी या विभिन्न व्यवसाय करने वाले नागरिक, विशेषत: असंख्य गृहणियां इस ‘राष्ट्र जागरण’ में बहुत मौलिक योगदान सतत कर रहे हैं। संघ के कारण इसकी देशव्यापी संगठित शक्ति का दर्शन होता है, केवल इतना ही अंतर है।
सम्पूर्ण समाज के बारे में असीम आत्मीयता और विशिष्ट व्यवस्था में अनुशासन के साथ काम करने का स्वभाव बनने के लिए वर्षों की साधना लगती है। परंतु वह परिणामकारक सिद्ध होती है। ऐसा ही एक अनुभव 2009 में 25 मई को बंगाल में आयला नामक तूफान के समय हुआ। दक्षिण 24 परगणा जिले में काफी तबाही हुई थी। मैं 3 जून को राहत कार्य देखने वहां गया था। 1 घंटा जीप में यात्रा करने के बाद 40 मिनट बोट में यात्रा कर हम उस द्वीप पर पहुंचे, जहां सेवा कार्य चल रहा था। घुटने भर कीचड़ में चलकर वहां पहुंच कर कार्यकर्ताओं की बैठक में उनके अनुभव और सेवा कार्य के बारे में पूछताछ के समय मैंने प्रश्न किया कि अन्य कौन-कौन सी सामाजिक-धार्मिक संस्थाएं सेवा कार्य करने के लिए यहां आई हैं? उत्तर अंतरमुख करने वाला था। उन्होंने कहा कि वे पक्की सड़क के आसपास के क्षेत्र में सेवा कार्य कर रही हैं। यहां भीतरी क्षेत्र में केवल संघ ही कार्यरत है। मैं सोचने लगा इन स्वयंसेवकों को ऐसी परिस्थिति का सामना पहली बार करना पड़ रहा है। इतने अंदर जाकर विस्तृत योजना बनाने का अनुभव भी नहीं है। फिर भी कितना अच्छा कार्य, जहां सही में आवश्यक है वहां, कठिनाईपूर्वक पहुंच कर ये लोग कर रहे हैं! यह सब असीम आत्मीयता और निश्चित व्यवस्था में काम करने के अभ्यास का ही परिणाम हो सकता है।
इस कोरोना के महासंकट में भी ऐसे प्रसंग आए। दिल्ली के आनंद विहार स्टेशन के पास किसी के अफवाह फैलाने के कारण हजारों श्रमिक अपने गांव जाने के लिए अचानक एकत्र हो गए। दिल्ली के स्वयंसेवकों ने यह समाचार मिलते ही तत्काल उनके लिए भोजन-पानी देने की व्यवस्था की। उत्तर प्रदेश के स्वयंसेवकों ने उत्तर प्रदेश राज्य प्रशासन की सहायता से उनके गांव तक सुरक्षित जाने के लिए 5,000 बसों की व्यवस्था की। यह वास्तव में प्रशासन का दायित्व था, पर स्वयंसेवकों ने अपनी शक्ति और प्रबंधकीय क्षमता का परिचय दिया। अपने गांव की ओर जाने के लिए मजबूर और असमंजस में पड़े श्रमिकों को उनके गांव तक पहुंचाना एक चुनौती ही थी।
संक्रमणशील बीमारी, भीड़ के कारण संक्रमण अधिक फैलने का डर और घर को जाने के लिए बूढ़ों-बच्चों -परिवार समेत निकल पड़े श्रमिक, इनकी व्यवस्था करना आसान नहीं था। जो व्यवस्थाएं इस हेतु बनाई गई थीं, कहीं वे अपर्याप्त थीं, तो कहीं व्यवस्था में रहने का अभ्यास और धैर्य न होने के कारण कई लोगों को बहुत कष्ट हुआ। उनके चित्र देखकर और उनके दर्द सुनकर दिल कांप उठता था। उस पर मीडिया में खूब बहस भी चली। सत्तापक्ष और विपक्ष ने एक दूसरों पर आरोप लगाए। परंतु इसी कालखंड में शासकीय व्यवस्था और सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से 10,00000 श्रमिक बिहार में, 30,00000 उत्तर प्रदेश में, 10,00000 श्रमिक मध्य प्रदेश में, 1.15 लाख झारखंड में अपने-अपने गांव पहुंच चुके हैं, यह भी साथ-साथ बताना चाहिए। (यह जानकारी 20 मई तक की है।) मध्य प्रदेश में उत्तर प्रदेश और बिहार जाने के लिए महाराष्ट्र और गुजरात से आए 4,00000 पैदल जाने वाले श्रमिकों को स्वयंसेवकों ने प्रशासन की सहायता से उत्तर प्रदेश की सीमा तक वाहनों द्वारा छोड़ दिया। वहां से उत्तर प्रदेश प्रशासन ने स्वयंसेवकों की सहायता से उन्हें अपने-अपने गांव या बिहार की सीमा तक पहुंचाने के लिए वाहन-व्यवस्था की। प्रत्येक की जांच करना, भोजन व्यवस्था और शारीरिक दूरी बनाने के आग्रह के साथ 50,00000 श्रमिकों को अपने गांव तक पहुंचाना, वहां भी उनके ‘आइसोलेशन’ की व्यवस्था करना, यह सब हुआ है। यह भी बहस में दिखना चाहिए।
‘लॉकडाउन’ के कारण अर्थतंत्र का पहिया भी रुक गया। अचानक आई इस आपदा की व्यापकता के कारण अनेक अकल्पनीय समस्याएं और चुनौतियां भी सामने आर्इं। उन सारी समस्याओं से निपटने के आयोजन या प्रयास में कुछ कमियां भी ध्यान में आर्इं। उनके परिणाम भी सामान्य, निरीह, बेबस लोगों को झेलने पड़े, यह दु:खद है। इन घटनाओं को लेकर सार्वजनिक जीवन में, मीडिया में बहस छिड़ना, उसकी चर्चा होना स्वाभाविक है। यह भी लोकतंत्र का हिस्सा ही है। परन्तु कुछ लोग, नेता, पत्रकार, लेखक इस बहस के चलते समय ‘हम भी इस समाज के अंग हैं,’ यह भाव भूल जाते हैं, ऐसा लगता है। किसी घटना को बढ़ा-चढ़ाकर चित्रित करना, और सब जगह है ऐसा ही हो रहा है, ऐसा प्रस्तुत करने से समाज का आत्मविश्वास, असंख्य कर्मचारी, अधिकारी, सामाजिक संस्थाओं के कार्यकर्ताओं की लगन, उनके परिश्रम पर प्रश्न चिन्ह खड़े हो सकते हैं। जो गलत है वह गलत ही है। उसकी जवाबदेही तय करते समय सारा कुछ गलत ही हो रहा है, ऐसी छवि न निर्माण हो इसका ध्यान, ‘वयं राष्ट्रांग भूता’ होने के नाते हम सभी को रखना होगा।
मैं जब 1992 में अमेरिका पहुंचा ही था तब की एक घटना मुझे याद है। उन दिनों एक वस्त्र निर्माता ने अलग-अलग रिवॉल्वर के चित्र के साथ ‘गन’ शब्द लिखे हुए टी-शर्ट्स तैयार की, जो अमेरिकी किशोरों में बहुत लोकप्रिय हुई। उस व्यापारी ने भी खूब मुनाफा कमाया। बाद में जब अभिभावकों के ध्यान में आया कि इसके कारण बालक हिंसा के लिए प्रवृत्त हो रहे हैं, तो उन्होंने पहले उन टी-शर्ट्स को बाजार से वापस लेने के लिए आंदोलन चलाया। अंत में जब उस निर्माता के सभी उत्पादन का बहिष्कार करने की बात चली तब उसने इन टी-शर्ट्स को बाजार से वापस लिया। जब पत्रकारों ने उस निर्माता से पूछा, ‘‘इन टी-शर्ट्स से समाज के युवाओं के मन पर विपरीत परिणाम हो रहा था तो आपने उन्हें पहले ही वापस क्यों नहीं लिया?’’ तब उसने उत्तर दिया, “Look, I am here in the business of making money, and not in the business of morality” यानी यह समाज मेरा अपना है या यह मेरे लिए केवल एक संसाधन है, ऐसे दो दृष्टिकोण हो सकते हैं।
इसी तरह यदि कहीं हिंसा, अत्याचार, शोषण, अन्याय, धोखाधड़ी जैसी घटनाएं होती हैं तो उनका निषेध, विरोध, प्रतिकार होना ही चाहिए, उनकी जांच करके दोषी पर कड़ी से कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। किन्तु ऐसी घटनाओं का सामान्यीकरण करना, विषम अनुपात में उसे बड़ा दिखाकर पूरे समाज की छवि पर आघात करना, कहां तक उचित है? परन्तु ऐसा होता हुआ दिखता है। कारण, ऐसा करने वालों के मन में यह ‘वयं राष्ट्रांगभूता’ का भाव क्षीण या लुप्त होता दिखता है। उन्हें, यह समाज, इस समाज का एक विशिष्ट वर्ग, यहां की विषमता, यहां की दरिद्रता, शिक्षा का अभाव, गंदगी ये सब अपना ‘एजेंडा’ साधने के लिए संसाधन जैसे दिखते हैं। यह अपनत्व भाव के अभाव का परिणाम है।
दुर्भाग्य से अपने ही देश के कुछ लोग समाज गढ़ने की इस बात की अनदेखी कर, केवल एकतरफा चित्र प्रस्तुत करने का प्रयास करते दिखते हैं। हमारी विविधता के मूल में जो एकता का सूत्र है, जो हमारी अध्यात्म-आधारित जीवनदृष्टि है उसका विस्मरण होने के कारण या उसे अनदेखा करने के कारण हमारी वैशिष्ट्यपूर्ण विविधता को भेद के नाते प्रस्तुत कर समाज में नए विभाजन करने के षड्यंत्र वर्षों से चल रहे हैं। इतने प्राचीन समाज में कालांतर में कुछ दोष निर्मित हुए, इस कारण कुछ समस्याएं उभरीं। उनके निवारण के हर प्रयत्न अवश्य होने चाहिए, पर यह करते समय समाज गढ़ने के कार्य को हानि न पहुंचे, इसका ध्यान भी रखना चाहिए। कुछ ऐतिहासिक गलत नीतियों के कारण सामाजिक और आर्थिक विषमताओं का निर्माण हुआ। उन्हें दूर कर समरस-समाज-निर्माण के लिए हर संभव प्रयत्न करने चाहिए। ये करते समय भी इस एकता का सूत्र शिथिल न हो, दुर्बल न हो इसका भी ध्यान रखना आवश्यक है।
आसेतु हिमाचल फैला हुआ यह सम्पूर्ण समाज, मेरा समाज है। मुझे इसे गढ़ना है। भविष्य में आने वाले सभी प्रकार के संकटों का सामना करने का इसका सामर्थ्य इसके एकत्व में, ‘हम’ भाव में है। हम सभी को, हर समय, हर परिस्थिति में इस ‘हम’ भाव को बढ़ाते, मजबूत करते रहना चाहिए।
डॉ. मनमोहन वैद्य
सह सरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयंंसेवक संघ
Article published in Panchjanya on 1st June 2020