कांग्रेस अध्यक्ष श्री राहुल गांधी द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तुलना ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ के साथ करने पर संघ से परिचित और राष्ट्रीय विचार के लोगों आश्चर्य होना स्वाभाविक है। भारत के वामपंथी, माओवादी और क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के लिए राष्ट्र विरोधी तत्वों के साथ खड़े तत्वों को इससे आनंद होना भी अस्वाभाविक नहीं है। वैसे, इसका अर्थ ये नहीं कि राहुल गांधी जिहादी मुस्लिम आतंकवाद की वैश्विक त्रासदी से अनजान हैं। ऐसा भी नहीं है कि वे समाजहित में चलने वाले संघ के कार्यों तथा समाज से संघ को सतत मिलते और लगातार बढ़ते समर्थन के बारे में नहीं जानते। फिर भी वे ऐसा क्यों कह रहे है? कारण – उनके राजनीतिक सलाहकार उन्हें यह बताने में सफल रहे हैं कि संघ की बुराई करने से, संघ के ख़िलाफ़ बोलने से उन्हें राजनीतिक फ़ायदा हो सकता है। इसलिए नाटकीय आवेश के साथ आरोप करना उन्हें सिखाया गया है। आरोपों को साबित करने की ज़िम्मेदारी उनकी नहीं है। किसी एक आरोप पर एक स्वयंसेवक ने उन्हें न्यायालय में चुनौती दी तो आरोप साबित करने के स्थान पर वे न्यायालय में आने से ही क़तरा रहे थे।
 
वास्तव में संघ भारत की परम्परागत अध्यात्म आधारित सर्वांगीण और एकात्म जीवनदृष्टि के आधार पर सम्पूर्ण समाज को एक सूत्र में जोड़ने का कार्य कर रहा है। इस सर्वसमावेशक जीवन दृष्टि की तुलना जिहादी मुस्लिम ‘ब्रदरहुड’ से करना समस्त भारतियों का, देश की महान संस्कृति का घोर अपमान है। वास्तव में जिहादी मुस्लिम मानसिकता और उनके कारनामों को देखा जाय तो उसके साथ ‘ब्रदरहुड’ शब्द ही बेमेल लगता है। इनका यह तथाकथित “मुस्लिम ब्रधरहुड” सलाफ़ी सुन्नी मुसलमानों के अलावा अन्य मुसलमानों को भी अपने “ब्रधरहुड” में स्वीकार नहीं करता, इतना ही नहीं, उन्हें मुसलमान मानने से ही इंकार करता है। 
 
इस 11 सितम्बर को स्वामी विवेकानंद के विश्व विख्यात शिकागो व्याख्यान को 125 वर्ष हो रहे हैं। उन्होंने भारत के सर्वसमावेशी एकात्म और सर्वांगीण जीवन दृष्टि के आधार पर विश्वबंधुत्व का विचार सबके सम्मुख रखा था। यह केवल बौद्धिक प्रतिपादन नहीं था। वे अपने हृदय के भाव बोल रहे थे। शिकागो में अपने ऐतिहासिक संबोधन में स्वामी विवेकानंद ने उद्बोधन की शुरुआत ही ‘मेरे अमेरिकन भाइयों और बहेनों’ से की थी जिसे सुन कर पूर्ण सभागार अचंबित और उत्तेजित हो उठा और कई मिनटों तक खड़े हो कर सभी के तालियों की ध्वनि से सारा सभागृह गूँज उठा था।  भाषण में उन्हों ने कहा था- “मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति, दोनों की ही शिक्षा दी हैं। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन् समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान हैं, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया हैं। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता हैं कि हमने अपने वक्ष में यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था, जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी, जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था । ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने महान् जरथुष्ट्र जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा हैं।” 
आगे वे कहते हैं-
“साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी बीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं, उसको बारम्बार मानवों के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं का विध्वंस करती और पूरे पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये बीभत्स दानवता न होती, तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता ।”
 
डॉ. अम्बेडकर ने “थॉट्स ऑन पाकिस्तान” में स्पष्ट कहा है- “इस्लाम यह एक बंद समुदाय है (closed corporation) और वह मुसलमान और ग़ैर-मुसलमान के बीच जो भेद करते हैं वह वास्तविक है। “इस्लामिक ब्रधरहुड” यह समस्त मानवजाति का समावेश करने वाला ‘विश्वबंधुत्व’ नहीं है।यह मुसलमानों का मुसलमानों के लिए ही ‘बंधुत्व’ है।वहाँ बंधुत्व है पर उसका लाभ उनके समुदाय तक ही सीमित है।जी उसके बाहर है उनके लिए तुच्छता(contempt) और शत्रुता के सिवा और कुछ भी नहीं है।” 
 
मुस्लिम ब्रधरहुड” सर्वत्र शरिया का राज्य लाना चाहता है, संघ हिंदू राष्ट्र की बात करता है जो सभी का स्वीकार करते हुए स्वामी विवेकानंद द्वारा प्रतिपादित ‘विश्वबंधुत्व’ (यूनिवर्सल ब्रधरहुड) का प्रसार करता है। सोचिये, जिहादी कट्टर “मुस्लिम ब्रदरहुड” की तुलना स्वामी विवेकानंद के विश्वबंधुत्व(Universal Brotherhood) के साथ कैसे हो सकती है! ऐसे महान विचारों को ले कर चलने वाले और सम्पूर्ण समाज का संगठन करने की सोच रखने वाले संघ के बारे में राहुल गांधी बार बार ऐसा वैमनस्य पूर्ण विचार क्यों रखते होंगे?
 
एक ज्येष्ठ स्तम्भ लेखक ने 2 वर्ष पूर्व कांग्रेस का वर्णन ऐसा किया कि “यह कोंग्रेस पार्टी किसी भी हद तक जा कर सत्ता में आने का प्रयास करती है और पार्टी की बौद्धिक गतिविधि उन्हों ने कम्युनिस्टों को सौंप दी (outsourced) है।” कांग्रेस की बौद्धिक गतिविधि जब से कामरेडों ने संभाल ली है तब से पार्टी ऐसी असहिष्णुता का परिचय देते हुए राष्ट्रीय विचारों का घोर विरोध करने लगी है। स्वतंत्रता के पूर्व कांग्रेस एक खुले मंच के समान थी। उसमें हिंदू महासभा, क्रांतिकारियों के समर्थक, नरम, गरम आदि सभी प्रकार के लोगों का समावेश था।
 
क्रमशः इसमें राजनीतिक दल का स्वरूप आने लगा और असहमति रखने वाले लोगों को दरकिनार किया जाने लगा। स्वतंत्रता के बाद भी विभिन्न विचार प्रवाह के लोग कांग्रेस में थे। पंडित नेहरू संघ का घोर विरोध करते थे, तो सरदार पटेल जैसे नेता संघ को कांग्रेस में शामिल होने का निमंत्रण दे रहे थे। 1962 के चीन के आक्रमण के समय संघ के स्वयंसेवकों ने जान की बाजी लगाकर सेना की जो सहायता की उससे प्रभावित होकर पंडित नेहरू ने 1963 के गणतंत्र दिवस परेड में शामिल होने के लिए संघ स्वयंसेवकों निमंत्रित किया था और तत्काल सूचना मिलने पर भी 3000 स्वयंसेवक उस परेड में शामिल हुए थे। 1965 में पाकिस्तान के आक्रमण के समय देश के प्रमुख नेताओं की आपात बैठक प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री जी ने बुलाई। इसमें सरसंघचालक श्री गुरुजी को बुलाया गया था और उनकी तुरंत दिल्ली पहुँचने की व्यवस्था भी सरकार ने की थी। इस बैठक में एक कम्युनिस्ट नेता द्वारा शास्त्री जी से बार-बार “आपकी सेना क्या कर रही थी?” पूछने पर श्री गुरुजी कहा- “ये आपकी सेना, आपकी सेना क्या कहे जा रहे हो? हमारी सेना कहो। आप क्या किसी दूसरे देश के हो?” 
 
राजनीति को राजनीति की जगह पर रखते हुए आपसी संवाद की ऐसी परम्परा 1970 के दशक तक चलती रही। फिर क्रमशः वामपंथी विचारों का प्रभाव कांग्रेस में बढ़ने लगा। शत्रुतापूर्ण भाषा और असहिष्णुता झलकने लगी। भाजपा को छोड़कर अधिकतर राजनैतिक दलों के बौद्धिक- वैचारिक प्रकोष्ठ में इन वामपंथियों का प्रभाव या वर्चस्व कम अधिक मात्रा में है ऐसा दिखता है। इसलिए अपने राजनैतिक स्वार्थ के लिए राष्ट्रीय विचारों का हर संभव विरोध और वामपंथी विचारों से प्रेरित समाज विखंडन के प्रयासों को इनके द्वारा समर्थन होता दिखता है।
 
गत कुछ वर्षों से अपने देश के प्रमुख विपक्ष कांग्रेस की स्थिति ऐसी विचित्र हो गई है की लगता है जो बौद्धिक गतिविधि कम्युनिस्टों को outsource कर दी थी उसके स्थान पर कांग्रेस के शरीर में माओवादी आत्मा का ही प्रवेश हो चुका है। ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि कोंग्रेस अध्यक्ष के इस अपमानजनक वक्तव्य के समर्थन में जितने लेखकों के लेख प्रकाशित हुए है उनके तार भी माओवादी या वामपंथी विचारों से जुड़े दिखते हैं।
 
क्या यह कम आश्चर्य की बात है कि माओवाद प्रेरित जितने भी आंदोलन हुए उन्हें कांग्रेस ने भरसक खुला समर्थन दिया है। ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे-इंशा अल्लाह, इंशा-अल्लाह अथवा भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी जारी जैसे नारे या भारतीय संसद पर आतंकी हमला करने वाले अफजल गुरु (जिसकी सजा यूपीए शासन के दौरान ही घोषित हुई थी) के समर्थन में अफजल हम शर्मिंदा हैं तेरे कातिल जिंदा हैं जैसे नारे लगाने वालों का खुला समर्थन कांग्रेस के नेताओं ने किया है!
 
 
समाज में जातीय विद्वेष भड़काकर संविधान की धज्जियाँ उड़ाते हुए की गयी हिंसा का समर्थन, बिना किसी के भड़काए (unprovoked) सार्वजनिक और निजी संपत्ति ध्वस्त करने वालों का समर्थन जब कांग्रेस पार्टी करती है तब इस पार्टी के शरीर का क़ब्ज़ा कर बैठी माओवादी आत्मा का स्पष्ट परिचय होता है। अर्बन माओवादी किस किस रूप में समाज में व्याप्त हुए है और कैसे प्रतिष्ठित हो गए है ये अभी की कुछ घटनाओं से जनता के सामने आ गया है। ऐसी देश विघातक ताक़तों को कांग्रेस का समर्थन देख कर आश्चर्य कम और दुःख अधिक होता है। वैचारिक मतभेद होने के बावजूद देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कोंग्रेस की ऐसी भाषा पहले कभी नहीं थी जैसी आज कांग्रेस बोल रही है। भारत का सबसे पुराना, स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व करनेवाला, सारे भारत में जिसका समर्थक हैं, ऐसा प्रमुख राष्ट्रीय दल अराष्ट्रीय तत्वों के साथ खड़ा देख कर चिंता भी होती है। शायद जनता भी यह बात समझ रही है इसीलिए कांग्रेस धीरे-धीरे अपना जनाधार खो रही है।
 
 
125 वर्ष पहले स्वामी विवेकानंद ने समुद्र पार जा कर भारत की इस सनातन सर्वसमावेशी संस्कृति की विजय पताका फहराई। आज उसी देश का एक नेता समुद्र पार जा कर इसी भारतीय संस्कृति की तुलना “इस्लामिक ब्रदरहुड” से कर विवेकानंद का, इस भारत की महान संस्कृति का और भारत का अपमान कर रहा है। लोकतंत्र में विभिन्न दलों में मतभेद तो हो सकते हैं पर राष्ट्रीय हित के मुद्दों पर अपनी राजनीतिक पहचान से भी ऊपर उठ कर एक होने से ही राष्ट्र प्रगति करेगा और अंतर्गत और बाह्य संकटों पर मात कर अपनी समस्याओं का समाधान ढूंढ सकेगा।
 
डॉ. मनमोहन वैद्य
सह सरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयंंसेवक संघ
 
Article published in Dainik Bhaskar on 13th September 2018