फूल से बोली कली, क्यों व्यस्त मुरझाने में है?
फायदा क्या गंध औ’ मकरंद बिखराने में है?
तू स्वयं को बांटता है, जिस घडी से तू खिला
किन्तु उस उपकार के बदले में तुझको क्या मिला?
देख मुझ को, सब मेरी खुशबू मुझी में बंद है
मेरी सुन्दरता है अक्षय, अनछुआ मकरंद है
में किसी लोलुप भ्रमर के जाल में फंसती नहीं
में किसी को देख कर, रोती नहीं, हंसती नहीं
मेरी छवि संचित जलाशय है, सहज झरना नहीं
मुझ को जीवित रहना है, तेरी तरह मरना नहीं
फूल उस नादान की वाचालता पर चुप रहा
फिर स्वयं को देख कर भोली कली से यह कहा
जिंदगी सिद्धांत की सीमाओं में बंटती नहीं
ये वो पूँजी है जो व्यय से बढती है घटती नहीं
चार दिन की जिंदगी, खुद को जिए तो क्या जिए
बात तो तब है कि जब, मर जाएँ औरों के लिए
प्यार का व्यापार का क्रम अन्यथा होता नहीं
वह कभी पाता नहीं है, जो कभी खोता नहीं
आराम की पूछो अगर तो, मृत्यु में आराम है
जिंदगी कठिनाइयों से जूझने का नाम है
ये तुम्हारी आत्मकेंद्रित गंध भी क्या गंध है?
जिंदगी तो दान का और प्राप्ति का अनुबंध है
गंध उपवन की विरासत है, इसे संचित न कर
बाँटने के सुख से अपने आप को वंचित न कर
यदि संजोने का मजा कुछ है तो बिखरने में है
जिंदगी की सार्थकता बीज बन जाने में है
दुसरे दिन मैंने देखा तो कली खिलने लगी
शकल सूरत में बहुत कुछ फूल से मिलने लगी
—–उदयप्रतापसिंह