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धन्यवाद डॉ. प्रणबदा

अपने ही लोगों के तीव्र विरोध के बाद भी पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर प्रणब मुखर्जी संघ के कार्यक्रम में नागपुर आए और पूर्ण सहभागी हुए इस लिए उनका विशेष अभिनंदन एवं धन्यवाद।
वह डॉक्टर केशवराव बलिराम हेडगेवार के घर भी गए और वहाँ अपना भाव एकदम स्पष्ट शब्दों में लिखकर व्यक्त किया।
स्मृति मंदिर में जाकर डॉक्टर हेडगेवार और श्री गुरुजी का स्मरण और अभिवादन किया और कार्यक्रम में अपने मन की बात खुलकर की। सारे कार्यक्रम में वे अत्यंत सहज-सरल थे। कार्यक्रम से पहले संघ के प्रमुख पदाधिकारी और अन्य विशिष्ट अतिथियों के साथ परिचय का कार्यक्रम था। नागपुर के संघचालक विशिष्ट अतिथियों का परिचय कराने वाले ही थे कि प्रणबदा ने कहा सब अपना-अपना परिचय देंगे और स्वयं खड़े हो कर कहा, ‘मैं प्रणब मुखर्जी’। उनकी यह सरलता सबके हृदय को छू गयी।

प्रणबदा अपना भाषण अंग्रेज़ी में लिख कर लाए थे। सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत का भाषण हिंदी में था। दोनों भाषण ‘एकम सत विप्रा: बहुधा वदंति’ का उत्तम उदाहरण थे। दोनों ने अलग अलग शब्दों में लगभग एक ही बात कही। प्रणबदा ने यह स्पष्ट किया कि पश्चिम की राज्याधारित राष्ट्र की संकल्पना और भारतीय जीवनदृष्टि आधारित राष्ट्र की भारतीय संकल्पना भिन्न हैं।
उन्होंने 5000 वर्षों की अविरत सांस्कृतिक धारा की बात की। वसुधैव कुटुम्बकम और सर्वे भवंतु सुखिन: की परम्परा की बात दोहरायी और सहिष्णुता, विविधता, सेक्यूलरिज़म (पंथनिरपेक्ष समानता) और संविधान की बात याद दिलायी।

मोहनराव भागवत जी के भाषण का भी यही भाव था परंतु शब्द जरा अलग थे। उन्होंने सहिष्णुता (Tolerance) के स्थान पर सभी के समावेश की बात की। उन्होंने कहा किसी भी भारतीय के लिए कोई भी अन्य भारतीय पराया नहीं हो सकता। कारण- सभी के पुरखे समान हैं। रिलीजन, भाषा या वंश के आधार पर नहीं अपितु जीवनदृष्टि और जीवन मूल्यों के आधार पर ही भारत का राष्ट्रजीवन विकसित हुआ है और यही भारतीय राष्ट्रजीवन का आधार है- यह दोनों ने प्रतिपादित किया।
मोहनराव भागवत ने भी एकदम साफ़ कहा – संघ संघ ही रहेगा और प्रणबदा प्रणबदा ही रहेंगे।

प्रणबदा और मोहनराव भागवत दोनों के भाषणों में भारत की 5000 वर्ष पुरानी सर्वसमावेशक (plural), वैविध्यपूर्ण (diverse) और विश्व को परिवार माननेवाली जीवनदृष्टि और परम्परा का गौरवपूर्ण उल्लेख हुआ है। यही जीवनदृष्टि और मूल्य अपने भारत के संविधान में भी अभिव्यक्त हुए हैं। इसलिए यह संविधान हमारी धरोहर है। पाकिस्तान (जो इसी भारत का एक हिस्सा था) का भी संविधान भारत के संविधान के साथ साथ ही बना। परंतु उनके संविधान में ये उदारता की, सबका समावेश करने वाली, विविधता का उत्सव मनाने वाली बात नहीं है। अब प्रश्न यह है दोनों एक ही समाज और देश का हिस्सा थे। फिर ऐसा क्यों हुआ? इसका कारण भारत की अध्यात्म आधारित एकात्म और सर्वांगीण जीवनदृष्टि में है। इस जीवन दृष्टि को भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन और गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने हिंदू जीवन दृष्टि (Hindu View of Life) कहा है। पाकिस्तान ने इसे नकारा, भारत ने अपनाया।

ये उदार जीवनमूल्य हमारी प्राचीन एकात्म और सर्वांगीण जीवन दृष्टि का परिणाम है। ये मूल्य हमें संविधान से नहीं बल्कि संविधान द्वारा मिले है। These liberal, plural values have not come to us from our constitution but through our constitution.

ख़लील जिब्रान की ‘आपके बच्चे’ नामक एक कविता है। उसमें वे कहते हैं :
“आपके बच्चे, आपके बच्चे नहीं हैं।
वे जीवन जीने की अदम्य इच्छा के पुत्र और पुत्री हैं।
वे आप से नहीं आते हैं बल्कि आपके द्वारा आते हैं।
और वे आपके पास हैं पर आपकी उनपर मालिकी नहीं है।”
(“Your children are not your children.
They are the sons and daughters of Life’s longing for itself.
They come through you but not from you,
And though they are with you, yet they belong not to you.”)

हम ऐसे है इसका कारण हमारा संविधान ऐसा है, यह नहीं है अपितु हम सदियों से ऐसे रहे हैं इसलिए हमारा संविधान ऐसा है। उसका सम्मान और पालन सभी को करना है। संघ ने यह लगातार किया है। स्वतंत्र भारत में संघ पर घोर अन्यायपूर्वक लादे गए दोनों प्रतिबंधों के समय संविधान सम्मत मार्ग से जो सत्याग्रह हुए वे स्वतंत्र भारत के इतिहास में अभूतपूर्व देशव्यापी, शांतिपूर्ण और अनुशासित थे। ऐसा अन्य किसी भी दल या संगठन का इतिहास नहीं है। संघ को संविधान विरोधी, आलोकतंत्रिक, हिंसक ऐसा झूठा प्रचार करने वाले किसी भी संगठन या दल का संविधान स्वीकृत होने के बाद अब तक एक भी ऐसा उदाहरण नहीं है जो संघ के सत्याग्रह के समान व्यापक, शांतिपूर्ण और अनुशासित हो। इसके विपरीत संविधान की धज्जियाँ उड़ाते हुए हिंसा का मार्ग अपनाने वाले, अपने ही सुरक्षा बलों के ऊपर कायरतापूर्ण सशस्त्र हमला करने वालों के साथ खड़े रहने वाले, उन्हें समर्थन देने वाले लोग संघ को संविधान का पाठ पढ़ाने का प्रयास करते दिखते हैं।

अभी 2 अप्रैल को केवल भाजपा शासित छह राज्यों में किए गए ‘भारत बंद’ के दौरान बिना किसी के भड़काए की गई अप्रत्याशित हिंसा के समर्थन में राहुल गांधी सहित सभी सेक्युलर-लिबरल नेता खुलकर खड़े थे। ये इनकी संविधान निष्ठा है।

प्रणबदा के भाषण के बाद उनके आने का विरोध करने वालों की प्रतिक्रिया भी विशेष थी। यह प्रतिक्रिया भारत के राजनैतिक और वैचारिक जगत में कम्युनिस्टों के प्रभाव एवं उपस्थिति की याद दिलाने वाली थी। इनकी विचारधारा ही अभारतीय होने के कारण इनकी प्रतिक्रिया में भी उदारता और सहिष्णुता का अभाव स्वाभाविक था। इनके द्वारा कहा गया – प्रणबदा ने संघ को आईना दिखाया। संघ के मंच से सेक्युलरिज़म और नेहरू के नाम का उच्चारण किया आदि-आदि ।

किन्तु ध्यान देने वाली बात है कि प्रणबदा के नागपुर आने का विरोध करने वालों में से किसी ने भी भागवत जी के भाषण पर कुछ नहीं कहा। हो सकता है कि उन्होंने यह भाषण सुना ही ना हो। सम्भवतः उनके लिए वह सुनने लायक ही नहीं था। कारण इनका वृत्ति ही जड़ (Dogmatic) है ।

-हम कोई नई बात नहीं सुनेंगे।
हम जो कहें वही सही।
हम सही, तुम गलत-
वाला ये वर्ग है । शायद इन जैसों के लिए ही जॉर्ज ओरवेल ने (कम्यूनिस्टों की एकाधिकरशाही और दांभिकता को उजागर करनेवाले) अपने उपन्यास ‘ऐनिमल फ़ार्म’ में कहा है “ चार पैर अच्छे, दो पैर बुरे (Four legs good, two legs bad)”। फिर ‘दो पैर’ की बात सुनना ही Blasphemy हुआ।

ध्यान दीजिए, सर्वसमावेशता में सहिष्णुता अंतर्निहित है और इसमें असहिष्णु आचरण करने वालों का भी समावेश है। किन्तु यह बात ये नहीं समझते। हिंदुत्व ‘वसुंधरा परिवार हमारा’ यह मानता है। परंतु ये ‘चार पैर ही अच्छे’ मानने वाले अपने अज्ञान के अंधकार में ही रहना चाहते हैं। इनके सारे नकारात्मक लेखन में कोई भी अपने स्वयं के अनुभव नहीं कहता। कारण यह कि संघ के नज़दीक जाना ही इनके लिए लीक से बगावत, महापराध, Blasphemy सरीखा है। ऐसे में सरसंघचालक क्या कह रहे हैं, यह सुनने का तो सवाल ही नहीं है!

अभी कुछ मास पूर्व मेरा आगरा के एक ईसाई परिवार से मिलना हुआ। उन्होंने संघ के बारे में ख़ूब प्रश्न किए। संघ के नज़दीक आकर अनुभव लिया। अब कोई भी ईसाई संघ को ईसाई विरोधी कहता है तो यह दम्पति उससे 3 प्रश्न पूछते हैं :

-क्या ये आपका स्वयं का अनुभव है?
-क्या आप संघ के किसी प्रमुख व्यक्ति से मिले हैं?
-क्या आपने संघ का कोई साहित्य पढ़ा है?

सभी के उत्तर नकारात्मक आते हैं। आगरा में जब मेरा प्रवास था तो इस परिवार ने आग्रहपूर्वक मेरा निवास अपने घर रखवाया। स्थानीय बिशप के साथ मेरी अनौपचारिक मुलाक़ात भी करवाई। हम बिशप के ऑफ़िस गए। मुलाक़ात अच्छी हुई। परंतु ऐसा खुलापन और खुला मन इन संघ विरोधियों का कहाँ है?

एक मराठी कविता आपातकाल में पढ़ी थी।
“सरावाच्या नकाराला होकाराचे भान नसते। सरावाच्या होकारात नकाराला स्थान नसते।”
उसका अनुवाद ऐसा है,
“आदतन हाँ कहने वाले को ‘ना’ कहना सूझता नहीं है,
आदतन ना कहने वाले के पास ‘हाँ’ को कोई स्थान नहीं है”
इसी तर्ज़ पर
“हमारी सर्वसमावेशकता में इन असहिष्णु को तो स्थान है, पर
इन (असहिष्णु) की सहिष्णुता सर्वसमावेशकता को सहन नहीं करती है।”

अपने प्रवास के दौरान, सरसंघचालक समाज के प्रभावशाली लोगों से मिलते ही हैं । एक सुप्रसिद्ध उद्योगपति ने मिलते समय हिंदू के स्थान पर भारतीय शब्द का प्रयोग करने का सुझाव दिया। तब श्री मोहनराव भागवत ने कहा की हमारे दृष्टि से दोनों में बहुत बड़ा गुणात्मक अंतर नहीं है। परंतु भारत शब्द के साथ एक प्रादेशिक संदर्भ आता है और हिंदू शब्द पूर्णतया गुणात्मक है। इसलिए पाकिस्तान में जन्मे तारिक फ़तेह भी अपने आपको हिंदू कह सकते हैं, कहते भी हैं। इसलिए आप भारतीय कहें, हम हिंदू कहेंगे, कोई और इंडिक भी कहेगा, हम इतना समझ लें कि हम सभी एक ही बात कर रहे हैं। यही है “एकम सत विप्रा: बहुधा वदंति”।

परंतु ये बात dogmatic और फ़ासिस्ट कम्युनिस्टों को मान्य नहीं है। इनकी बिरादरी में आप टॉलरेन्स, सेक्युलर, नेहरू , मार्क्स इन शब्दों का प्रयोग नहीं करेंगे और हिंदुत्व की भर्त्सना नहीं करेंगे तो आपको जीने का अधिकार भी नहीं है। तब आप ‘टॉलरेट’ करने योग्य भी नहीं रहते हो। इसलिए कम्युनिस्ट के स्वर्ग समान केरल में संघ का काम करने के कारण ही मार्च 1965 से मई 2017 तक 233 संघ कार्यकर्ताओं की हत्या कम्युनिस्टों ने की है और इस में से 60% कार्यकर्ता वे है जो कम्युनिस्ट पार्टी छोड़ कर संघ में आए थे।

हिंदू राष्ट्र की सर्वसमावेशक सांस्कृतिक कल्पना आप कितनी भी बार समझाइए कम्युनिस्ट और उनके सहचर उसे संकीर्ण, विभाजक और विभेदक (narrow, divisive, exclusive) ही बताएँगे ।

कारण उन्होंने तय कर दिया है की आप ऐसे ही हो। कई वर्ष पुराना कोई पत्र, कोई लेख, कोई कॉमेंट छांटकर (selective), संदर्भ के बिना वे लिखेंगे। संघ के अनेक पदाधिकारियों ने इन सभी वर्षों में अब तक क्या कहा यह वे कभी नहीं सुनेंगे। कारण एक ही, “..दो पैर बुरे हैं”।

किन्तु उनके आँख मूँद लेने से यह बदलनेवाला नहीं कि आज भी संघ में मुस्लिम, ईसाई स्वयंसेवक हैं , प्रशिक्षित कार्यकर्ता हैं। हिंदू के नाते हम कन्वर्ज़न में विश्वास नहीं करते। इसलिए वे वर्षों से स्वयंसेवक रहते हुए अपनी अपनी ईसाई या मुस्लिम उपासना का ही अनुसरण करते है। 1998 में विदर्भ प्रांत का शिविर था। तीन दिन के लिए 30,000 स्वयंसेवक पूर्ण गणवेष में तम्बुओं में रहे थे। ऐसे शिविर शुक्र, शनि, रविवार को ही होते हैं। शनिवार का व्रत रखने वाले कार्यकर्ताओं के लिए व्रत की अलग व्यवस्था करने के लिए उनकी संख्या ली जाती है। तब ध्यान में आया कि वह रमज़ान का समय था और कुछ स्वयंसेवक रोज़ा रखने वाले है। उनकी रोज़ा छोड़ने की व्यवस्था करने हेतु संख्या ली गयी। उन रोज़ा रखने वाले 122 स्वयंसेवकों के लिए रात देर से रोज़ा छोड़ने की व्यवस्था की गयी। यदि रमज़ान नहीं होता तो शायद शिविर में रोज़ा रखने वाले स्वयंसेवक हैं यह पता भी नहीं चलता।

इन उदार, लिबरल, सेक्युलर नेताओं के बयान ध्यान से पढ़ेंगे तो इनका आलोकतांत्रिक, संकुचित, कट्टर, साम्प्रदायिक, क्षुद्र चरित्र, जो भारत के परम्परागत चरित्र से एकदम विपरीत है, तुरंत ध्यान में आएगा। प्रणबदा के संघ के कार्यक्रम में आने के कारण इनका मुखौटा फिर से उतर गया है। ये कहते है की प्रणबदा ने संघ को आईना दिखाया। संघ तो हर वर्ष चिंतन बैठकों एवं प्रतिनिधि सभा में अपने आप ही आईना देख लेता है। कार्य का, मार्ग का, कार्यपद्धति का सिंहावलोकन, आत्मावलोकन, मूल्याँकन करता ही है। साथ ही आवश्यक परिवर्तन भी करता चलता है। अभी हाल ही में अप्रैल में पूना में ऐसी ही एक चिंतन बैठक सम्पन्न हुई। किन्तु खुद को प्रगतिशील कहने वाले रूढ़िवादी और उदार कहने वाले कट्टर-असहिष्णु लोगों की वाम-सेकुलर लामबन्दियाँ अपना चेहरा आईने में कब देखेंगी ? यदि देखेंगी तो इनके ध्यान में आएगा कि इनका मुखौटा अनेक जगह से फट गया है और उस मुखौटे में छिपाया उनका साम्प्रदायिक, संकुचित, कट्टर, असहिष्णु असली चेहरा सब को दिख रहा है। जनता यह देख रही है और इसी लिए इन्हें सब दृष्टि से नकार भी रही है।

On a lighter note- प्रणबदाके संघ के कार्यक्रम में आने का सिरे से अलोकतांत्रिक विरोध करने के कारण देश और दुनिया के सभी चैनलों ने इस कार्यक्रम का लाईव प्रसारण किया जिस से संघ को न केवल समझने का अपितु प्रत्यक्ष देखने का अवसर दर्शकों को मिला इसके लिए इन विरोध करने वालों का धन्यवाद। 1 से 6 जून तक संघ की वेबसाइट पर ‘जॉइन आरएसएस’ के लिए प्रतिदिन औसत 378 रिक्वेस्ट आ रही थी। 7 जून के कार्यक्रम के दिन ये संख्या 1779 थी। इसलिए भी इन सबका धन्यवाद।

डॉ. मनमोहन वैद्य
सह सरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयंंसेवक संघ

Article published in Dainik Jagaran on 25th June 2018