कोरोना काल हो या विश्व संकट की कोई भी घड़ी, भारत ने कभी भी केवल अपने बारे में नहीं सोचा। अपने साथ-साथ विश्व कल्याण की बात ही भारत ने हमेशा सोची है. “आत्मनो मोक्षार्थम् जगत् हिताय च” यही भारत का विचार और आचरण रहा है। अपने “स्वदेशी समाज” नामक निबंध में गुरुवर्य रविंद्रनाथ ठाकुर निःसंदिग्ध शब्दों में कहते हैं कि “हमें सबसे पहले हम जो हैं, वह बनना पड़ेगा।” कोरोना काल में क्या है इसके मायने? पढ़ें – राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (RSS) के सह सरकार्यवाह मनमोहन वैद्य (Manmohan Vaidya) के विशेष लेख का भाग-दो।
क्या है इस ‘हम’ की पहचान
अपने “स्वदेशी समाज” नामक निबंध में गुरुवर्य रविंद्रनाथ ठाकुर निःसंदिग्ध शब्दों में कहते हैं कि “हमें सबसे पहले हम जो हैं, वह बनना पड़ेगा।” इस “हम” की पहचान, अपनी आध्यात्म आधारित और इसीलिए एकात्म और सर्वांगीण जीवनदृष्टि से जुड़ी हुई है। हिमालय से लेकर अंडमान तक फैली इस भूमि पर रहने वाला विभिन्न भाषा बोलने वाला, अनेक जातियों के नाम से जाना जाने वाला, अनेक उपास्य देवताओं की उपासना करने वाला, यहां पर सदियों से रहने वाला, प्रत्येक समाज “हम” की इस पहचान को साझा करता है और इसे अपना मानता है। इस पहचान को लोग जानते हैं। उसे अनेक नामों से पहचानते हैं। यह हमारी पहचान – “एकम् सत् विप्राः बहुधा वदन्ति।”, “विविधता में एकता”, “प्रत्येक व्यक्ति में ईश्वर का अंश है”, और “उस” ईशतत्व से जुड़ने के मार्ग प्रत्येक के, उसकी रूचि, प्रकृति और पात्रता के अनुसार, विभिन्न हो सकते है, केवल “उस” से जुड़ने की, “उस” से नज़दीक जाने की दिशा में जीवन सतत चलना चाहिए। इन चार प्रमुख बातों पर आधारित हमारी यह “पहचान” है। वह जीवन के हर क्षेत्र में अभिव्यक्त होती दिखनी चाहिए यही “हम जो हैं, वह बनने” का मर्म है।
बदल रहे हैं हमारे गांव
आज भी 70% भारत गांव में रहता है। परन्तु पहले ये गांव कैसे थे? गाँव तक रास्ते नहीं थे। शिक्षा और स्वास्थ्य की अच्छी सुविधा नहीं थी। रोजगार के अवसर उपलब्ध नहीं थे, गांव में रहना पिछड़ेपन का लक्षण माना जाने लगा था। इसलिए पढ़ने के लिए और पढ़ने के बाद आजीविका कमाने के लिए पढ़ा-लिखा वर्ग, प्रतिभा-बुद्धि, गांव से पलायन करती थी। परन्तु अब स्थिति बदल गयी है, बदल रही है और भी बदल सकती है। इतना ही नहीं यह बदलनी आवश्यक है। अब रास्ते बन गए हैं, बिजली, इंटरनेट, मोबाइल, आवागमन के साधन गांव में उपलब्ध हैं और भी हो सकते हैं। गांव में ही स्वास्थ्य की, अच्छी शिक्षा की व्यवस्था कर सकेंगे तो गांव में ही लोग रहना पसंद करेंगे। शहर केंद्रित के स्थान पर विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था, उद्योग आदि की सम्भावना बढ़ी है।
कोरोना काल में अपनी जड़ें तलाशते लोग
कोरोना के कारण शहरों से लोग अपने गांव में, अपने लोगों में, जहां उनकी जड़ें जमीन से जुडी हैं, वहां पहुंच रहे हैं। इसमें शिक्षित वर्ग भी है। यदि उन्हें गांव के विकास के कार्य में जोड़कर वहीं रखा जाय, काम के अवसर वहीं तलाशे जाये, निर्माण किये जाये तो गांव में पहुंचे 40% वर्ग को हम वहीं स्थिर, उद्योगरत रख सकते हैं।
गांव में शुरू हो सकते हैं अनेक नए उद्योग
आज के शिक्षित वर्ग में जिस इनोवेशन की, नया सोचने की कमी रह गयी है, उन्हें इसके लिए ऑनलाइन प्रशिक्षण और कार्यशालाओं के माध्यम से इनोवेशन के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है। ग्रामीण जीवन संबंधित और कृषि आधारित अनेक नए उद्योग, गांव में शुरू हो सकते हैं। ग्राम समूहों के माध्यम से (क्लस्टर्स) परस्पर पूरक उद्योगों की शृंखला वहाँ विकसित कर सकते हैं। गांव में ही उत्पादित वस्तुओं को सूचना तकनीक के माध्यम से सीधे ग्राहक तक या स्थानिक खुदरा बाजार तक पहुंचा सकते हैं। इस कार्य से भी अनेक युवकों को रोजगार उपलब्ध कराया जा सकता है। आज उबर या ओला के माध्यम से एक अच्छी सुविधायुक्त सेवा आपके दरवाजे पर, एक कॉल करते ही उपलब्ध है। वह कितने मिनट में आएगी, कितने समय में पंहुचायेगी यह जानकारी तुरंत उपलब्ध है। उसके लिए सीधा भुगतान करने की सुविधा भी आधुनिक तंत्रज्ञान के कारण संभव है। लोग अनुभव कर रहे हैं, उपयोग कर रहे है। इस कारण अनेक युवकों को रोजगार के अवसर भी उपलब्ध हुए हैं।
जैविक खेती का महत्व और मूल्य समझ रहे लोग
आज रासायनिक खाद से दुनिया और धरती त्रस्त है। जैविक खेती का महत्त्व और मूल्य लोग समझ रहे हैं। थोड़े अधिक दाम देकर भी लोग शुद्ध अन्न चाहते हैं। माँग और पूर्ति के इस कार्य व्यवहार को परस्पर उपयोगी, संतुलित अर्थतंत्र के रूप में विकसित किया जाये, सीधा ग्राहकों तक यह उत्पाद पहुंचाए जाए तो बड़ी संख्या में रोजगार निर्माण हो सकता है। देशी नस्ल की गौ के दूध और अन्य गौ उत्पाद की मांग बढ़ सकती है, ये सारी योजनाएं ग्राम केंद्रित या ग्राम समूह केंद्रित हो सकती हैं। आज रोजगार उपलब्ध कराने की सर्वाधिक क्षमता लघु और मध्यम उद्योगों में है। यदि बिजली और अन्य आवश्यक सुविधाएं गांव में दी जाएं तो वहीं लघु उद्योग शुरू हो सकते हैं। सरकार को चाहिये की ऐसे उद्योग शुरू करने की सुलभता और सहजता निर्माण करे। शुरू में ग्रामीण क्षेत्र में उद्योग शुरू करने वालों को कम ब्याज पर कर्ज और अन्य कुछ रियायतें उपलब्ध कराएं।
यह एक प्रकार का आर्थिक युद्ध है
भारत की आर्थिक स्थिति पर चीन का बहुत प्रभाव था। कोरोना महामारी के चलते चीन बहुत विवाद में आया है। अब यदि भारत में चीन से उत्पादित वस्तुओं के बहिष्कार की बात आती है तो समाज का स्वतःफूर्त प्रतिसाद मिलने की पूर्ण सम्भावना है। उसके पहले भारत को उन सभी वस्तुओं के लिए, जो चीन से केवल इसलिए बड़ी मात्रा में आती थीं, क्योंकि सस्ती पड़ती हैं, उनके स्वदेशी विकल्प खड़े करने होंगे। यह एक प्रकार का आर्थिक युद्ध ही है। इसलिए युद्धस्तर पर इसके लिए तैयारी की जाये तो अनेक युवकों को रोजगार के अधिक अवसर प्राप्त हो सकते है। अनेक देश चीन से व्यापार बंद करने की सोच रहे हैं। यदि हम चीन से आने वाली वस्तुओं का अच्छा और सस्ता स्वदेशी विकल्प बड़ी मात्रा में दे सकेंगे, तो दुनिया के अनेक देश चीन के स्थान पर भारत से व्यापार करेंगे। इससे भारत की आर्थिक स्थिति और सुदृढ़ होगी। सरकार-राज्य निर्यात की सुविधा और सहूलियत की व्यवस्था करें। बाक़ी सारी चुनौती समाज स्वीकार करेगा।
रविंद्रनाथ की स्वदेशी समाज की कल्पना
स्थानिक रोजगार को ध्यान में रखकर ही सारी योजनाएं बनानी होगी। वैश्वीकरण (Globalisation) का “One Size Fits All” यह विचार अनुचित है। परस्पर सहमति से परस्पर पूरक, आर्थिक सहयोग एवं व्यापार के करार दो देशों के बीच होना उपयोगी सिद्ध होगा। ये सारे उद्योग ग्राम-समूह केंद्रित होंगे तो वहां निर्मित वस्तुओं का मूल्य भी तुलना में कम होगा। कारण गांव में जीवन जीना (Cost of Living) शहर की तुलना में सस्ता और जीवन का स्तर (Quality of Life) अच्छा होगा। वह अपने लोगों के बीच रहेगा, जमीन से जुड़ा रहेगा, गांव के सामाजिक जीवन में भी अपना योगदान देता रहेगा। शहर में रहने का अनुभव होने के कारण गांव में अनेक नयी पहल वह कर सकेगा। यह केवल सरकार के भरोसे नहीं चलेगा। समाज की पहल और सरकार का सहयोग दोनों के द्वारा यह सम्भव होगा। रविंद्रनाथ ठाकुर की स्वदेशी समाज की यही कल्पना है। वे कहते हैं, वह समाज जो राज्य (State Power) पर कम से काम अवलम्बित होता है वह स्वदेशी समाज है।
शीघ्र लागू हो नई शिक्षा नीति
भारत में नई शिक्षा नीति की तैयारियां चल रहीं हैं। उस पर पूर्ण विचार कर वह शीघ्र ही लागू हो। ऐसा हुआ तो भारत की जड़ों से जुड़कर, भारतीय मूल्यों पर आधारित जीवन जीने का लक्ष्य रखने वाली पीढ़ी तैयार होगी। सभी दृष्टि से भौतिक समृद्धि और सम्पन्नता को साधते हुए भी अपने अंतर के “ईश” तत्व को समझना और उसे आत्मसात करने का प्रयत्न करना इन दोनों को एक साथ साधना, भारत सहस्राब्दियों से इसे जीवन की पूर्णता मानता आ रहा है। “यतोSभ्युदय निःश्रेयस सिद्धिः स धर्मः।” भारत की इस प्राचीन मान्यता का यही अर्थ है।
समाजिक समृद्धी का फार्मूला
विवेकानंद शिष्या भगिनी निवेदिता कहती है, कि “जिस समाज में लोग अपने परिश्रम का पारिश्रमिक अपने ही पास न रख कर समाज को देते हैं, उस समाज में, इस एकत्र हुई सामाजिक पूँजी के आधार पर समाज का प्रत्येक व्यक्ति सम्पन्न और समृद्ध बनता है। पर जिस समाज में लोग अपने परिश्रम का पारिश्रमिक समाज को न दे कर अपने ही पास रखते हैं, उस समाज में कुछ लोग तो सम्पन्न और समृद्ध होते है, पर समाज दरिद्र ही रहता है।” हमारे यहाँ समाज को अपना मानकर देने को ही “धर्म” कहा गया है। राज्य शक्ति पर आधारित नहीं, तो इस धर्म पर आधारित समाज शक्ति के आधार पर ही समाज टिका रहा है, सम्पन्न और समृद्ध रहा था। श्रेष्ठ लोगों को देख कर अन्य लोग भी उसका अनुसरण करेंगे, “यद्यदाचरति श्रेष्ठः तत्तदेवेतरो जनाः। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।” इन सारी संभावनाओं को ध्यान में लेकर भविष्य के भारत का, इसकी व्यवस्थाओं का वृहद् खाका खींचा जाए, एक मास्टर प्लान बनाया जाये. “कोरोना काल” की सीख तो यही है।
डॉ. मनमोहन वैद्य
सह सरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयंंसेवक संघ
Article published in Dainik Jagran on 21st May 2020