कोरोना वायरस संक्रमण के कारण भारत ही नहीं पूरा विश्‍व प्रभावित हुआ है। पृथ्वी की गति के सिवाय, सारी गति रुक सी गयी है। विमान नहीं उड़ रहे, ट्रेनें नहीं चल रहीं, कारें नहीं दौड़ रहीं। मनुष्य का पैदल घूमना भी बंद सा हो गया है। पृथ्वी-प्रकृति अपनी स्वच्छ-स्वस्थ साँस ले रही है। कोरोना संकट की इस घड़ी में भारत, पूरे विश्‍व को दृष्टि, विशेषज्ञता और अनुभव से एक नई दिशा प्रदान कर सकता है। पढ़ें- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सह सरकार्यवाह मनमोहन वैद्य का विशेष लेख।
इन चंद दिनों में मानों सारा प्रदूषण बह गया है। नदियों का जल स्वच्छ हुआ है। प्राणी निर्भय होकर नगरों के आसपास आकर विचरण करने लगे है। हवा इतनी स्वच्छ हुई है कि पंजाब के जालंधर से हिमालय के हिमाच्छादित शिखर सीधे दिख रहे हैं। भले ही यह सब, कुछ समय के लिए क्यों न हो, पर जो असंभव सा था वह सब इस बीच संभव होता दिख रहा है। गति थम जाने से क्या होता है? यह जानना आवश्यक है और दिलचस्प भी। गति बढ़ने से क्या हुआ है? यह जानेंगे तो, गति रुकने से क्या होगा यह समझना आसान होगा। 
मानव और प्रकृति के अलगाव का सबसे मुख्य कारण
श्री एस. के चक्रवर्ती अपने “Rising Technology and falling ethics” लेख में लिखते हैं : “आधुनिक विज्ञान और उससे निकली प्रौद्योगिकी का विकास ऐसे समय हुआ जब मनुष्य जाति, पृथ्वी और प्रकृति से अपनेपन के भावनात्मक संबंधों के बंधन तोड़ना शुरू कर रही थी। प्रबुद्ध वस्तुनिष्ठता का तकाजा था कि मनुष्य और प्रकृति के संबंध मजबूत करने वाले लक्षणों, क्रियाकलापों और युगों से चली आ रही रूढ़ियों को धता बताते हुये उन्हें अंधविश्वास करार दे दिया जाय। भविष्य की चिन्ता न करने का सोचा-समझा रवैया प्रगतिशील और मुक्त मानसिकता की निशानी माना जाने लगा। असल अलगाव यहीं से हुआ। जब कोई लगाव न रहे, तब क्या भला और क्या बुरा? मानव व्यवहार और प्रकृति के बीच नीति-अनीति का विचार तिरोहित हो जाने का सबसे बड़ा स्पष्टीकरण ऐसी भावना में ही निहित है। इसमें कोई संदेह नहीं कि पदार्थ, वायु, जल, काल, दूरी आदि के नियंत्रण और विजय द्वारा विज्ञान-टेक्‍नोलॉजी के समन्वय से बाह्य भौतिक जीवन के अनेक पहलू लाभान्वित हुये तथापि तालमेल के स्थान पर अक्खड़पन, डर और सम्मान के स्थान पर चिड़चिड़ेपन और अहंकार की ओर झुकाव की अनदेखी नहीं की जा सकती। यह विचलन ही मानव और प्रकृति के अलगाव का सबसे मुख्य कारण रहा है।  
पर्यावरण के प्रति अनाचार का मुख्य कारण
“मनुष्य और प्रकृति के बीच का यह परायापन परिवेश और पर्यावरण के प्रति अनाचार का मुख्य कारण ही नहीं बना वरन परायेपन का यह लोकाचार मानव समाज के सभी आयामों में भी दखल देने लगा। राष्ट्र से राष्ट्र के, संगठन से संगठन के, मनुष्य से मनुष्य के और ऐसे अन्य सम्बन्ध विज्ञान-प्रौद्योगिकी इंजन की शक्ति के साथ मिलकर भौतिक सम्पन्नता के चरम लक्ष्य के उत्तरोत्तर साधन बने हैं। 
इसीलिये आज अन्तर्राष्ट्रीय प्रबंधन सम्मेलनों में विचारों के आदान-प्रदान को बढ़ावा नहीं दिया जाता। वहाँ गोपनीय राजनीतिक और भौतिक मनसूबे अंदर ही अंदर काम करते रहते हैं। इनका एकमात्र उद्देश्य होता है विज्ञान-प्रौद्योगिकी की दौड़ को तीव्र से तीव्रतर करना। इस प्रक्रिया से नैतिकता की कोमल भावनायें धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लगती हैं और न केवल प्रकृति ही महज एक स्रोत, साधन रह जाती है वरन् मनुष्य भी अनैतिक ढंग से इस चतुर तकनीक केंद्रित नजरिये को सहजता से अपने आप में ढ़ाल देता है। “औजार से मशीन, मशीन से स्वचालितता, स्वचालितता से चिप – यह निरंतर प्रगति मानव को मानवता से दूर अधिक दूर कर रही है।” इस रवैये के कारण मनुष्य न केवल प्रकृति बल्कि समाज और संगी-साथियों से भी दूर और अलग-थलग पड़ता जा रहा है।  
महसूस कर रहे हैं रिश्तों की, सम्बन्धों की ऊष्मा 
परिणामतः वह अपने परिवेश से, अपनों से, परायों से व्यवहार में अधिक घमण्डी, अधिक क्रूर और अधिक हिंसक होता जा रहा है। और इस प्रकार की मानसिकता वाले समाज ही (तथाकथित) “विकसित, आधुनिक’ समाज और मानव समुदाय हैं। इस “प्रगतिशील -विकसित” समाज के मूल, कुल, अपरिपक्व ज्ञान और जीवन के अपेक्षाकृत अल्प अनुभव के आधार पर ऐसा समझ में आता है कि उनके निष्कर्ष गलत, अधूरे और असंगत हैं।
अप्रत्याशित गति बढ़ने से यह हुआ है। अब गति रुक सी गई है तो नदियों का पानी स्वच्छ बहने लगा है, हवा शुद्ध हुई है, व्यक्ति परिवार में अपनों के बीच अधिक समय बिता रहा है, रिश्तों की, सम्बन्धों की ऊष्मा को सब महसूस कर रहे है, कितने कम आवश्यकताओं के साथ जीवन आनंद से गुजर सकता है, जी सकते है यह अब ध्यान में आ रहा है। 
रुक सा गया है दुनिया का आर्थिक पहिया
भारतीय चिंतन का सार बताने वाला एक संदेश इन दिनों फैल रहा है, “When you can not go outside, go “Inside” !” बाहर की यात्राएँ थमने से भीतर झांकने के नई यात्रा शुरू हुई है। पर आगे क्या? दुनिया का आर्थिक पहिया रुक सा गया है, नौकरियाँ छूट गयी हैं, वेतन देने हैं, पुराना बकाया चुकाना है, लोग शहर छोड़कर अपने गाँव, अपने राज्य में पहुँच गए है, जो बीच में फँस गए है उन्हें राज्य सरकार की सहायता से गाँव पहुँचाया जा रहा है। भारत जैसे वैविध्य पूर्ण विशाल जनसंख्या के देश के सामने यह एक प्रश्न खड़ा है।
  
बिली लिम नामक लेखक ने अपनी “Dare to Fail” पुस्तक में एक महत्वपूर्ण बात कही है। वे कहते हैं कि जब आप किसी समस्या का सामना करते हो तब अपने आप को समस्या से दूर रखो, तो वह परिस्थिति बनती है। उस परिस्थिति का आप विश्लेषण करोगे तो वह चुनौती बनेगी। और यदि आप अपनी शक्ति और संसाधनों का विचार कर उस चुनौती का सामना करने की सोचो तो वह अवसर बनेगी। (When you face a problem and take yourself away from it, it becomes a situation. When you are to analyse it, it becomes a challenge. And when you think of your resources to meet the challenge, it becomes an opportunity.—Billy Lim)  
गांव हो रहे खाली और शहरों में बढ़ रही है भीड़
भारत की परम्परागत शिक्षा पद्धति में नया सोचना (Innovation), प्रश्न पूछना, इससे प्रश्नों के उत्तर स्वयं ढूँढने के लिए प्रोत्साहन मिलता था। शिक्षक या आचार्य, कैसे सीखना यह पढ़ाते थे, (Teaching how to learn) और जीवन कैसे जीना यह अपने आचरण से सिखाते थे। अभी भौतिक सुखों की पूर्ति के लिए धनार्जन करने वाली शिक्षा अधिकतर पढ़ाई जा रही है। उसके परिणाम स्वरुप नौकरी मांगने वाली, स्व-केंद्रित और भौतिकतावादी पीढ़ी हम तैयार करते आ रहे हैं। भारत के विकास के नापने के पैमाने और उसकी की दिशा ही शहर केंद्रित होने के कारण स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार आदि की सारी सुविधाएँ, शहर केंद्रित होती रहीं। उस के परिणामस्वरूप गांवों से शहर की ओर, शहर से महानगरों की ओर, महानगरों से मेट्रो और मेट्रो से विदेश की ओर भारत की प्रतिभा और बुद्धि का पलायन या स्थलांतर होता रहा। इसलिए गांव खाली हो रहे है, शहरों में भीड़ बढ़ती जा रही है। शहरों का जीवन सुविधा युक्त, परन्तु दौड़ धूप वाला, जमीन से कटा और खोखला होता जा रहा है। पर कोई विकल्प भी नहीं दिखता है।
  
दुष्परिणाम आ रहे हैं सामने
वैश्वीकरण (Globalisation), जो विकासशील और अविकसित देशों पर थोपा गया, उसके दुष्परिणाम अब सामने आ रहे है। विकासशील और अविकसित ऐसे देशों के शोषण का, उपनिवेशवाद (Colonisation) के बाद का नया अवतार, यह वैश्विकरण है यह अब दुनिया समझ रही है, अनुभव कर रही है। इस कुचक्र से बाहर आने का रास्ता सब खोज रहे हैं। इसलिए अब जब सब थम सा गया है, सारा विश्व नई संरचना के लिए चिंतित है, आशंकित है उसे आश्वस्त करने की क्षमता और दायित्व क्या भारत निभा सकता है? यह प्रश्न है।  
इसका उत्तर सकारात्मक ही है। यह भारत कर सकता है। भारत ही कर सकता है। कारण भारत के पास ऐसी तीन बातें है जो भारत के ही पास है। एक भारत के पास कम से कम दस हज़ार वर्षों से अधिक समय का सामाजिक, राष्ट्रीय जीवन का अनुभव है।
 भारत ने प्राप्त किए समृद्धि के शिखर
दूसरा भारत के ही पास इस सृष्टि की रचना का अध्यात्म आधारित एक सर्वांगीण और एकात्म दृष्टिकोण और उस पर आधारित जीवन का एक चिंतन और अनुभव है। आधुनिक तंत्र ज्ञान के कारण अब जब दुनिया इतनी नज़दीक आयी है कि साम्प्रदायिक (Religious), वांशिक(Ethnic) और भाषाईं (Linguistic) वैविध्य के साथ, परस्पर पूरक एकत्र जीवन चलना है तो विविधता में एकता और संयमित उपभोग के साथ जीवन का उत्सव मनाने की कला भारत जानता है यह दुनिया का निरीक्षण और अनुभव भी है। भारत ने समृद्धि के शिखर प्राप्त किए है। ईसा के पहले वर्ष से 1700 वर्षों तक विश्व व्यापार में भारत का सहभाग सर्वाधिक रहा है। 
 
इतिहास साक्षी है कि हजारों वर्षों से भारत के लोग व्यापार हेतु पुरे विश्व में विभिन्न देशों में जाते रहे। परन्तु अध्यात्म आधारित होने के कारण ही, जीवन की सर्वांगीण और एकात्म दृष्टि से उपजी “वसुधैव कुटुम्बकम” की भावना के कारण भारतीयों ने वहाँ अपने उपनिवेश(colonies) निर्माण करने का प्रयास नहीं किया। उनका शोषण नहीं किया। उन्हें गुलाम नहीं बनाया। बल्कि उन्हें संस्कृति और जीवन जीने का बेहतर तरीका, अपने आचरण से सिखाया और उन्हें संपन्न बनाया (we created wealth there). इसलिए भारत के पास दृष्टि (vision), विशेषज्ञता(expertise) और अनुभव(experience) तीनों है। भारत दिशा दे सकता है। अब आगे कैसे बढ़ना है इस पर विचार करना होगा। 
डॉ. मनमोहन वैद्य
सह सरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयंंसेवक संघ
Article published in Dainik Jagran on 18th May 2020