एक बची चिंगारी चाहे चिता जला या दीप.
जीर्ण थकित लुब्धक सूरज की लगन को है आँख
फिर प्रचीति से उडा तिमिर खग, खोल सांज की पांख
हुई आरती की तैयारी शंख खो दिया सीप….
मिल सकता मन्वंतर क्षण चूका सको यदि मोल
रह जायेंगे कालकंठ में माटी के फूल बोल
आदत से आबद्ध गतागत फिर क्या दूर समीप…..